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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 25 मिलने के समान है, एवं जीवित होते हुए भी उसे मृतक तुल्य समझना चाहिए, तथा वह बहुत ज्ञानी होने पर भी अज्ञानी के ही सदृश्य है । जब कि दान, शील, तप तथा तीव्र धर्म क्रियाएं करना कठिन है तो सहज ही में होनेवाली तीर्थ वन्दना आदर सहित क्यों न करनी चाहिए? जो पुरुष *६ः’री पालन करके चौविहार छट्ठ तपपूर्वक पैदल ही शत्रुंजय तीर्थ की सात यात्राएं करता है, वह पुरुष धन्य व जगत् मान्य है। कहा है कि छट्ठेणं भत्तेणं अपाणएणं तु सत्त जत्ताओ। जो कुइ सित्तुंजे सो तइअभवे लहइ सिद्धिं ॥ १ ॥ जो मनुष्य लगातार चौविहार छट्ठ करके शत्रुंजय तीर्थ की सात यात्राएं करता है वह तीसरे भव में सिद्धि को प्राप्त होता है। जिस प्रकार मेघजल काली मिट्टी में मार्दव (कोमलता ) उत्पन्न कर देता है उसी तरह गुरु महाराज श्री श्रुतसागरसूरि के वचन से राजा जितारी का मन भद्रक होने से अत्यन्त कोमल हो गया। सूर्य के समान श्री श्रुतसागरसूरि के सूर्यरश्मि समान वचनों जतारी राजा के मन में स्थित मिथ्यात्व - तम का नाश होकर सम्यक्त्वरूपी प्रकाश उत्पन्न हो गया। समकित लाभ होने से राजा का मन शत्रुंजय की यात्रा करने को बहुत उत्सुक हो गया जिससे उसने शीघ्र मंत्रियों को आज्ञा की कि, 'हे मंत्रीजनों! बहुत जल्दी यात्रा की तैयारी करो।' यह कहकर राजाने सहसा ऐसा अभिग्रह लिया कि, 'जब मैं पैदल चलकर शत्रुंजय पर्वत पर श्री ऋषभदेव भगवान् को वन्दना करूंगा तभी मैं अन्न जल ग्रहण करूंगा' हंसी, सारसी आदि अन्य लोगों ने भी 'यथा राजा तथा प्रजा' नीति के अनुसार यही अभिग्रह लिया । धर्मकार्य करते समय यदि मनुष्य को विचार करना पड़े तो वह भाव ही क्या है? इसीलिए राजादिकों ने केवल भाववश बिना विचार किये ही तुरत अभिग्रह लिया। मंत्री आदि लोगों ने राजा को विविध प्रकार से समझाया कि, 'कहां तो अपना नगर और कहां शत्रुंजय तीर्थ! सहसा ऐसा अभिग्रह लेना यह कैसा कदाग्रह है? यह कितने खेद की बात है?' इसी तरह श्रुतसागर सूरिजी ने भी कहा कि, 'हे राजन्! वास्तव में विचार करके ही अभिग्रह लेना योग्य है, क्योंकि बिना विचारे कार्य करने से यदि पीछे से पश्चात्ताप हो तो उस कार्य से कोई लाभ नहीं, इतना ही नहीं बल्कि आर्त्तध्यान से अशुभकर्म का संचय होता है' जितारी राजा ने कहा कि, 'गुरु महाराज! पानी पीकर जात पूछने अथवा मुंडन के पश्चात् मुहूर्त पूछने से जैसे कोई लाभ नहीं वैसे ही अब विचार करने से क्या लाभ है? हे महाराज! किसी प्रकार पश्चात्ताप न करके मैं अपने अभिग्रह का पालन करूंगा तथा आपके चरणों के प्रसाद से शत्रुंजय पर जाकर श्री ऋषभदेव भगवान् के दर्शन करूंगा, इसमें कौनसी असंभव * १ एकलहारी-दिन में एक समय भोजन करना, २ सचित्तपरिहारी सचित्त वस्तु का त्याग करना, ३ ब्रह्मचारी-ब्रह्मचर्य पालन करना, ४ पयचारी- पैदल चलना, ५ गुरुसहचारी-गुरु के साथ चलना, तथा ६ भूमि संथारी - भूमि पर सोना ।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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