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श्राद्धविधि प्रकरणम् श्रुततिथियां (पर्वतिथियां) कही हैं। बीज दो प्रकार का धर्म आराधने के लिए, पंचमी पांच ज्ञान आराधने के लिए, अष्टमी आठों कर्मों का क्षय करने के लिए, एकादशी ग्यारह अंग की सेवा के निमित्त तथा चतुर्दशी चौदहपूर्वो की आराधना के लिए जानना। इन पांचों पर्वो में अमावस्या, पूर्णिमा सम्मिलित करने से प्रत्येक पक्ष में छः उत्कृष्ट पर्व होते हैं। संपूर्ण वर्ष में तो अट्ठाइ, चौमासी आदि बहुत से पर्व हैं।
पर्व के दिन आरम्भ का सर्वथा त्याग न हो सके तो अल्प से भी अल्प आरम्भ करना। सचित्त आहार जीवहिंसामय होने से, वह करने में बहुत ही आरम्भ होता है, अतएव उपस्थित गाथा में आरम्भ वर्जने को कहा है, जिससे पर्व के दिन सचित्त आहार अवश्य वर्जना, ऐसा समझना चाहिए। मछलियां (सचित्त) आहार की अभिलाषा से सातवीं नरकभूमि में जाती हैं। इसलिए सचित्त आहार मन से भी इच्छना योग्य नहीं; ऐसा वचन है। इसलिए मुख्यतः तो श्रावक को, सदैव सचित्त आहार त्यागना चाहिए, परन्तु यदि वैसा न कर सके तो पर्व के दिन तो अवश्य ही त्यागना चाहिए। इसी प्रकार पर्व के दिन स्नान करना, बाल समारना, सिर गूंथना, वस्त्र आदि धोना अथवा रंगना, गाड़ी हल आदि जोतना, धान्यआदि के मूड़े बांधना, चरखा आदि यंत्र चलाना, दलना, कूटना, पीसना, पान, फल, फूल आदि तोड़ना, सचित्त खड़िया, हिरमची आदि बांटना, धान्य आदि लीपना, माटी आदि खोदना, घरआदि बांधना इत्यादि संपूर्ण आरम्भों को यथाशक्ति त्याग करना चाहिए। आरम्भ बिना अपने कुटुम्ब का निर्वाह न कर सके तो कुछ आरम्भ तो गृहस्थ को करना पड़ता है, पर सचित्त आहार का त्याग करना अपने हाथ में होने से और सहज साध्य होने से उसे अवश्य करना चाहिए। विशेष रुग्णावस्था आदि कारण से सर्व सचित्त आहार का त्याग न किया जा सके, तो एक दो वस्तु का नाम ले खुली रखकर शेष सर्व सचित्त वस्तुओं का नियम करना। ___ इसी प्रकार आश्विन तथा चैत्र की अट्ठाइ, तथा गाथा में प्रमुख शब्द है जिससे, चौमासे की तथा संवत्सरी की अट्ठाइ, तीन चातुर्मास (आषाढ, कार्तिक और फाल्गुन)
और संवत्सरी आदि पर्वो में उपरोक्त विधि के अनुसार विशेष धर्मानुष्ठान करना। कहा है कि-सुश्रावक को संवत्सरी की, चौमासी की तथा अट्ठाइ की तिथियों में परम आदर से जिनराज की पूजा, तपस्या तथा ब्रह्मचर्यादिक गुणों में तत्पर रहना। सर्व अट्ठाइयों में चैत्र और आश्विन की अट्ठाइयां शाश्वती हैं। कारण कि, उन दोनों अट्ठाइयों में वैमानिक देवता भी नंदीश्वर द्वीप आदि तीर्थों में तीर्थयात्रादि उत्सव करते हैं। कहा है कि—दो यात्राएं शाश्वती हैं। जिसमें एक चैत्रमास में और दूसरी आश्विन मास में, अट्ठाइ महिमारूप होती है। ये दोनों यात्राएं शाश्वती हैं। उनको सम्पूर्ण देवता तथा विद्याधर नन्दीश्वर द्वीप में करते हैं। तथा मनुष्य अपने-अपने स्थानों में करते हैं। इसी प्रकार तीन चातुर्मास, संवत्सरी, छः पर्व तिथियां तथा तीर्थंकर के जन्मादि कल्याणक इत्यादि में जो यात्राएं करते हैं वे अशाश्वती हैं। जीवाभिगम सूत्र में भी इस प्रकार कहा है कि