SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 323 श्राद्धविधि प्रकरणम् बहुत से भवनपति, वाणमंतर, ज्योतिषी और वैमानिक देवता नंदीश्वरद्वीप में तीन चातुर्मास तथा संवत्सरी पर अपार महिमा से अट्ठाइ महिमा करते हैं। प्रभात समय में पच्चक्खाण करने के समय जो तिथि आये वही ग्रहण करना। सूर्योदय का अनुसरण करके लोक में भी दिन आदि सर्व व्यवहार चलता है। कहा है कि चाउम्मासिअ वरिसे, पक्खिअ पंचट्ठमीसु नायव्वा। ताओ तिहिओ जासिं, उदेइ सरो न अण्णाओ ॥१॥ पूआ पच्चक्खाणं पडिकमणं तहय नियमगहणं च। जीए उदेइ सूरो, तीइ तिहीए उ कायव्वं ।।२।। उदयंमि जा तिही सा, पमाणमियरीइ कीरमाणीए। आणाभंगऽणवत्था, मिच्छत्त विराहणं पावे ॥३॥ पाराशर स्मृति आदि ग्रंथ में भी कहा है कि जो तिथि सूर्योदय के समय थोडी भी हो, वही तिथि संपूर्ण मानना चाहिए, परन्तु उदय के समय न होने पर वह पश्चात् बहुत काल तक हो तो भी संपूर्ण नहीं मानना। श्रीउमास्वातिवाचक का वचन भी इस प्रकार सुनते हैं कि-पर्वतिथि का क्षय हो तो उसकी पूर्व की तिथि करना, तथा वृद्धि हो तो दूसरी करना, और श्रीवीरभगवान् के ज्ञान तथा निर्वाण कल्याणक लोकानुसरण से करना। अरिहन्त के जन्मादि पांचकल्याणक भी पर्वतिथि रूप ही समझना चाहिए। दो तीन कल्याणक जिस दिन हो तो वह विशेष पर्वतिथि मानना। सुनते हैं कि सर्व पर्वतिथियों की आराधना करने को असमर्थकृष्ण महाराज ने श्रीनेमिनाथ भगवान को पूछा कि, 'हे स्वामिन्! सारे वर्ष में आराधन करने योग्य उत्कृष्ट पर्व कौन सा है?' भगवान् ने कहा-'हे महाभाग! जिनराज के पंचकल्याणक से पवित्र हुई मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी (मौन एकादशी) आराधना करने के योग्य है। इस तिथि में पांच भरत और पांच एरवत मिलकर दश क्षेत्रों में प्रत्येक में पांच पांच मिलकर सब पचास कल्याणक हुए।' पश्चात् कृष्ण ने मौन, पौषध, उपवास आदि करके उस दिन की आराधना की। तत्पश्चात् 'यथा राजा तथा प्रजा' के न्याय से सर्वलोगों में यह एकादशी आराधने के योग्य है। यह प्रसिद्धि हुई। पर्वतिथि के दिन व्रत, पच्चक्खाण आदि करने से महत् फल प्राप्त होता है। कारण कि, उससे शुभगति का आयुष्य संचित होता है। आगम में कहा है किप्रश्न : हे भगवन्! बीज आदि तिथियों में किया हुआ धर्मानुष्ठान क्या फल देता है? उत्तर ः हे गौतम! बहुत फल है। कारण कि, प्रायः इन पर्व-तिथियों में परभव का आयुष्य बंधता है। इसलिए तरह-तरह की तपस्या धर्मानुष्ठान करना, कि जिससे शुभ आयुष्य उपार्जन हो, प्रथम से ही आयुष्य बंधा हुआ हो तो पीछे से बहुत सा धर्मानुष्ठान करने से भी वह नहीं टलता। जैसे पूर्व में राजा श्रेणिक ने गर्भवती हरिणी को मारी, उसका गर्भ अलगकर अपने कंधे की तरफ दृष्टि करते नरकगति का आयुष्य
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy