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________________ 320 श्राद्धविधि प्रकरणम् होने के हेतु से शिष्यों से अलग रहते थे। गति स्वरूप का चिन्तन : संसार की अतिशय विषमस्थिति—प्रायः चारों गति में अत्यन्त दुःख भोगा जाता है, उस पर से विचारना। जिसमें नारकी और तिर्यंच इन दोनों में अतिदुःख है वह तो प्रसिद्ध ही है। कहा है कि सातों नरकभूमि में क्षेत्रवेदना और बिना शस्त्र एक दूसरे को उपजाई हुई वेदना भी है। पांच नरकभूमि में शस्त्र जन्य वेदना है। और तीन में परमाधार्मिक देवता की की हुई वेदना भी है। नरक में अहर्निश पड़े हुए नारकी जीवों को आंख बन्द हो इतने काल तक भी सुख नहीं, लगातार दुःख ही दुःख है। हे गौतम! नारकी जीव नरक में जो तीव्र दुःख पाते हैं, उसकी अपेक्षा अनन्तगुणा दुःख निगोद में जानना। तिर्यंच भी चाबुक, अंकुश, परोंणी आदि की मार सहते हैं इत्यादि। मनुष्य भव में भी गर्भवास, जन्म, जरा, मरण, अनेक प्रकार की पीड़ा, व्याधि, दरिद्रता आदि उपद्रव होने से दुःख ही हैं। कहा है कि हे गौतम! अग्नि में तपाकर लालचोल की हुई सुइयां एक समान शरीर में चुभाने से जितनी वेदना होती है। उससे अष्ट गुणी वेदना गर्भावास में है। जब जीव गर्भ में से बाहर निकलते ही योनियंत्र में पीलाता है तब उसे उपरोक्त वेदना से लक्षगुणी अथवा कोटाकोटी गुणी वेदना होती है। बंदीखाने में कैद, वध, बंधन, रोग, धननाश, मरण, आपदा, संताप, अपयश, निंदा आदि दुःख मनुष्य भव में हैं। कितने ही मनुष्य, मनुष्य भव पाकर घोरचिंता, संताप, दारिद्य और रोग से . अत्यंत उद्वेग पाकर मर जाते हैं। देवभव में भी च्यवन, पराभव, ईर्ष्याआदि हैं ही। कहा है कि डाह (अदेखाई),खेद, मद, अहंकार, क्रोध,माया,लोभ इत्यादि दोष से देवता भी लिपटे हुए हैं; इससे उनको सुख कहां से हो? इत्यादि। मनोरथ : . - - - - - - धर्म के मनोरथों की भावना इस प्रकार करनी चाहिए। श्रावक के घर में ज्ञानदर्शनधारी दास होना अच्छा; परंतु मिथ्यात्व से भ्रमित बुद्धिवाला चक्रवर्ती भी अन्य जगह होना ठीक नहीं। मैं स्वजनादिक का संग छोड़कर कब गीतार्थ और संवेगी गुरु महाराज के चरण-कमलों के पास दीक्षा लूंगा? मैं तपस्या से दुर्बल-शरीर होकर कब भय से अथवा घोर उपसर्ग से न डरता हुआ स्मशान आदि में काउस्सग्ग कर उत्तमपुरुषों की करणी करूंगा? इत्यादि। । इति श्रीरत्नशेखरसूरि विरचित श्राद्धविधिकौमुदीकी हिंदी भाषा का रात्रिकृत्यप्रकाशन नामक द्वितीयः प्रकाशः संपूर्णः मानव भव कर्म मुक्त होने के लिए कर्म राजाने दिया है।। अब मैं क्या कर रहा हूँ? इस पर चिंतन कर।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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