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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 319 दीक्षा लेकर कोशा के महल में ही चातुर्मास रहनेवाले स्थूलभद्र स्वामी का तथा अभयारानी के किये हुए अनेक प्रकार के अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्ग से मन में लेशमात्र भी विकार न पानेवाले सुदर्शन श्रेष्ठी आदि का दृष्टान्त प्रसिद्ध है; इसलिए उनको सविस्तार कहने की आवश्यकता नहीं। कषाय आदि दोषों पर जय-उन दोषों की मन में उलटी भावना आदि करने से होता है। जैसे क्रोध पर जय क्षमा से, मान पर निरभिमानपन से, माया पर सरलता से, लोभ पर सन्तोष से, राग पर वैराग्य से, द्वेष पर मित्रता से, मोह पर विवेक से,काम पर स्त्री के शरीर की अशुचिभावना करने से,मत्सर पर दूसरों की बढ़ी हुई संपदा देखने में आये तो भी ईर्ष्या न रखने से, विषय पर इंद्रियदमन से, मन, वचन, काया के अशुभ योग पर त्रिगुप्ति से, प्रमाद पर सावधान रहने से और अविरति पर विरति से सुख पूर्वक जय होती है। तक्षकनाग के मस्तक पर स्थित मणि ग्रहण करना, अथवा अमृत पान करना, ऐसे उपदेश के समान यह बात होना अशक्य है; ऐसी भी मन में कल्पना नहीं करना। साधु मुनिराज आदि उन दोषों का त्याग करके सद्गुणी हुए प्रत्यक्ष दृष्टि में आ रहे हैं। तथा दृढ़प्रहारी, चिलातीपुत्र, रोहिणेय चोर आदि पुरुषों के दृष्टान्त भी इस विषय पर प्रसिद्ध हैं। कहा है कि हे लोगों! जो जगत् में पूजनीय हो गये, वे प्रथम अपने ही समान सामान्य पुरुष थे; यह समझकर तुम दोष का त्याग करने में पूर्ण उत्साही हो ऐसा कोई क्षेत्र नहीं कि, जिसमें सत्पुरुष (जन्म से) उत्पन्न होते हैं! और शरीर इंद्रियां आदि वस्तुएं जैसे मनुष्य को स्वभावतः होती हैं, उस प्रकार साधुत्व स्वाभाविक नहीं मिलता; परन्तु जो पुरुष गुणों को धारण करता है, वही साधु कहलाता है, इसलिए गणों को उपार्जन करो। __ अहो! हे प्रियमित्र विवेक! तू बहुत पुण्य से मुझे मिला है। तू मुझे छोड़कर कहीं मत जा। मैं तेरी सहायता से शीघ्र ही जन्म तथा मरण का उच्छेद करता हूं। कौन जाने? पुनः तेरा व मेरा मिलाप हो कि न हो। प्रयत्न-उद्यम करने से गुणों की प्राप्ति होती है, और प्रयत्न करना अपने हाथ में ही है। ऐसा होते हुए 'अमुक बहुत गुणी है' यह बात कौन जीवित पुरुष सहन कर सकता है? गुण से ही संमान की प्राप्ति होती है। जाति ज्ञाति के आडम्बर से कुछ नहीं होता। वन में उत्पन्न हुआ पुष्प ग्रहण किया जाता है, और प्रत्यक्ष अपने शरीर से उत्पन्न हुआ मल त्याग दिया जाता है। गुण से ही जगत् में महिमा बढ़ती है, स्थूल शरीर अथवा पकी हुई वृद्धा (वय) से महिमा नहीं बढ़ती। देखो, केवड़े के बड़े और जूने पत्ते अलग रह जाते हैं, पर भीतर के छोटे छोटे नये पत्तों को सुगंधित होने से सब कोई स्वीकारते हैं। इसी प्रकार जिससे कषायादिक की उत्पत्ति होती हो; उस वस्तु का अथवा उस प्रदेश का त्याग करने से उन दोषों का नाश हो जाता है। कहा है कि जिस वस्तु से कषायरूपी अग्नि की उत्पत्ति होती है, उस वस्तु को त्याग देना, और जिस वस्तु से कषाय का उपशम होता है उस वस्तु को अवश्य ग्रहण करना चाहिए। सुनते हैं कि, स्वभाव से ही क्रोधी चंडरुद्र आचार्य, क्रोध की उत्पत्ति न
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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