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________________ 318 श्राद्धविधि प्रकरणम् तक रहता है ऐसा आप्त (सयाने) पुरुषों का वचन है। अतएव मोह का सर्वथा उपशम करके वैराग्यादि भावना से निद्रा लेना। वैसा करने से कुस्वप्न नहीं आते, बल्कि उत्तमोत्तम धार्मिक ही स्वप्न आते हैं। दूसरे सोते समय शुभ भावना रखने से, सोता हुआ मनुष्य पराधीन होने से, बहुत आपदा होने से,आयुष्य सोपक्रम होने से तथा कर्म की गति विचित्र होने से कदाचित् मृत्यु को प्राप्त हो जाये, तो भी शुभ गति ही होगी। कारण कि 'अंत में जैसी मति, वैसी गति' ऐसा शास्त्र वचन है। इस विषय में कपटी साधु द्वारा मारे हुए उदायी राजा का दृष्टांत जानना। वासना विजय : ___अब उपस्थित गाथा के उत्तरार्द्ध की व्याख्या करते हैं -पश्चात् पिछली रात्रि को निद्रा उड़ जावे, तब अनादिकाल के भव के अभ्यास के रससे उदय पानेवाले दुर्जय कामराग को जीतने के लिए स्त्री के शरीर का अशुचिपन आदि मन में चिन्तन करना। 'अशुचिपन आदि यहां 'आदि' शब्द कहा है, अतएव जंबूस्वामी, स्थूलभद्रस्वामी आदि बड़े बड़े ऋषियों ने तथा सुदर्शन आदि सुश्रावकों ने दुःसाध्य शील पालने के लिए जो मन की एकाग्रता की वह, कषायआदि को जीतने के लिए जो उपाय किये वे, संसार की अतिशय विषमस्थिति और धर्म के मनोरथों इन वस्तुओं का चिन्तन करना। उसमें स्त्रीशरीर की अपवित्रता, निन्द्यपन आदि सर्व प्रसिद्ध हैं। पूज्य श्रीमुनिचन्द्रसूरिजी ने अध्यात्मकल्पद्रुम में कहा है कि अरे जीव! चमड़ी (त्वचा), अस्थि (हड्डी), ' मज्जा, आंतरड़ियां, चरबी, रक्त, मांस,विष्ठा आदि अशुचि और अस्थिर पुद्गलसमूह स्त्री के शरीर के आकार में परिणत हुए हैं, उसमें तुझे क्या रमणीय लगता है? अरे जीव! विष्ठाआदि अपवित्र वस्तु दूरस्थान में भी जरासी पड़ी हुई देखे, तो तू थू थू करता है, और नाक सिकोड़ता है। ऐसा होते हुए रे मूर्ख! उसी अशुचिवस्तु से भरे हुए स्त्री के शरीर की तू कैसे अभिलाषा करता है? मानो विष्ठा की थैली ही हो ऐसी, शरीर के छिद्र में से निकलते हुए अत्यन्त मल से मैली (मलीन), उत्पन्न हुए कृमिजाल से भरी हुई, तथा चपलता से, कपट से और असत्यता से पुरुष को ठगनेवाली स्त्री को उसकी बाहरी सफाई के मोह में पड़कर जो भोगता है, उससे उसे नरक प्राप्त होती है। कामविकार तीनों लोक में विडम्बना करनेवाला है, तथापि मन में विषय संकल्प न करे तो वह (कामविकार) सहज में ही जीता जा सकता है। कहा है कि काम! जानामि ते मूलं, सङ्कल्पात् किल जायसे। तमेव न करिष्यामि, प्रभविष्यसि मे कुतः? ॥१॥ हे कामदेव! मैं तेरी जड़ जानता हूं। तू विषयसंकल्प से उत्पन्न होता है। इसलिए मैं विषयसंकल्प ही न करूं। जिससे तू मेरे चित्त में उत्पन्न ही न होगा। इस विषय में स्वयं नई विवाहित आठ श्रेष्ठि कन्याओं को प्रतिबोध करनेवाले और निन्यान्वे करोड़ स्वर्णमुद्रा बराबर धन का त्याग करनेवाले श्री जम्बूस्वामी का, कोशा वेश्या में आसक्त हो साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्राएं व्ययकर कामविलास करनेवाले तत्काल
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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