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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् वयकाएहिं न करे, न कारवे गंठिसहिएणं ॥२॥ अर्थ ः प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और दिन लाभ (प्रातःकाल विद्यमान परिग्रह) ये सर्व पूर्व नियमित नहीं इनका नियम करता हूं। वह इस प्रकार — एकेन्द्रिय को तथा मशक, जूं आदि त्रस जीवों को छोड़कर शेष का आरंभ और सापराध त्रस जीव संबंधी तथा अन्य प्राणातिपात, सामान्य या स्वप्नादि के संभव से मन को रोकना अशक्य है, इसलिए गांठ न छोडूं वहां तक वचन तथा काया से न करूं और न कराऊं। इसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान और मैथुन का भी नियम जानना। तथा दिनलाभ भी नियमित नहीं था, उसका अभी नियम करता हूं। उसी तरह अनर्थदंड का भी नियम करता हूं। शयन, आच्छादन आदि छोड़कर शेष सर्व भोगपरिभोग को, घर का मध्य भाग छोड़कर बाकी सर्व दिशि गमन को गांठ न छोडूं वहां तक वचन से तथा काया से न करूं, न कराऊं ऐसा त्याग करता हूं। इस रीति से देशावकाशिक ग्रहण करने से महान् फल प्राप्त होता है, और इससे मुनिराज की तरह निःसंगपन उत्पन्न होता है। यह व्रत जैसे वैद्य के जीव वानर ने प्राणांत तक पाला, और उससे उसने दूसरे भव में सर्वोत्कृष्ट फल पाया, वैसे ही विशेषफल के इच्छुक अन्य मनुष्य को भी मुख्यतः पालना चाहिए। परंतु वैसे पालने की शक्ति न हो तो अनाभोगादि चार आगारों में से चौथे आगार द्वारा अग्नि सुलगना आदि कारण से वह (देशावकाशिक) व्रत छोड़े तो भी व्रतभंग नहीं होता । वैद्य के जीव वानर का दृष्टांत श्रीरत्नशेखरसूरिजी (विरचित) आचारप्रदीप ग्रंथ में देखो । इसी प्रकार चार शरणो को अंगीकार करना । सर्व जीव राशि को खमाना । अट्ठारह पापस्थानक का त्याग करना । पाप की निंदा करना । पुण्य की अनुमोदना करना। प्रथम नवकार की गणना कर ----- 317 'जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए । आहारमुवहि देहं सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ॥१॥ > इस गाथा से तीनबार सागारी अनशन स्वीकार करना, और सोते समय नवकार का चिंतन करना । एकांत शय्या में ही सोना, परंतु जहां स्त्री आदि का संसर्ग हो वहां नहीं सोना । कारण कि विषयसेवन का अभ्यास अनादिकाल का है, और वेद का उदय सहन करना बहुत कठिन है, जिससे कदाचित् कामवासना से जीव पीड़ित हो । कहा है कि - जैसे लाख की वस्तु अग्नि के पास रखते ही पिघल जाती है, वैसे ही धीर और दुर्बल शरीरवाला पुरुष हो तो भी वह स्त्री के पास हो तो पिघल जाता है (कामवश होता है)। पुरुष मन में जो वासना रखकर सो जाता है, उसी वासना में वह जागृत होने १. जो इस रात्रि में इस देह का प्रमाद हो तो यह देह, आहार और उपधि इन सर्वे को त्रिविध से वोसिराता हूं।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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