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श्राद्धविधि प्रकरणम् किया है। अपवाद मार्ग से साधुओं को सेवा करानी हो तो साधु से ही करानी चाहिए। तथा कारणवश साधु के अभाव में योग्य श्रावक से करानी चाहिए, यदि महान् मुनिराज सेवा नहीं कराते, तथापि मन के परिणाम शुद्ध रख सेवा के बदले उन मुनिराज को खमासमण देने से भी निर्जरा का लाभ होता है, और ऐसा करने से विनय भी किया जाता है। सोने के पूर्व स्वाध्याय एवं धर्मोपदेश : ___ तत्पश्चात् पूर्व में पढ़े हुए 'दिनकृत्य' आदि श्रावक की विधि दिखानेवाले ग्रन्थों की अथवा उपदेशमाला, कर्मग्रंथ आदि ग्रन्थों का पुनरावर्तनरूप, शीलांग आदि रथ की गाथा गिननेरूप अथवा नवकार की वलयाकारआवृत्ति आदि स्वाध्याय अपनी बुद्धि के अनुसार मन की एकाग्रता के निमित्त करना। शीलांग रथ:
शीलांग रथ इस गाथा के अनुसार हैकरणे ३ जोए ३ सन्ना ४, इंदिअ ५ भूमाइ १० समणधम्मो अ१०॥ सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स निप्फत्ति ॥१॥ अर्थः करण, करावण, अनुमोदन ये तीन करण, इन तीनों को मन, वचन, काया
के तीन योग से गुणा करते नौ हुए। इन नौ को आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं से गुणा करते ३६ हुए। उनको चक्षु, स्पर्श, श्रोत्र, रस और घ्राण इन पांच इन्द्रियों से गुणा करते १८० एकसौ अस्सी हुए, उनको पृथिवीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेइंद्रिय, तेइंद्रिय, चौरद्रिय, पंचेंद्रिय और अजीवकाय इन दस भेद के साथ गुणा करते १८०० अट्ठारहसौ हुए। उनको १ क्षान्ति, २ मार्दव, ३ आर्जव, ४ मुक्ति (निर्लोभता), ५ तप, ६ संयम, ७ सत्य, ८ शौच (पवित्रता), ९ अकिंचनता (परिग्रहत्याग) और १० ब्रह्मचर्य (चतुर्थव्रत) इन दश प्रकार के साधु धर्म से गुणा करते १८००० अट्ठारह हजार होते हैं। इस प्रकार शीलांग रथ के
१८००० भेद जानना। शीलांगरथ की भावना का पाठ इस प्रकार है'जे नो करंति मणसा, निज्जिअआहारसन्नसोइंदी।
पुढविक्कायारंभ, खंतिजुआ ते मुणी वंदे ॥१॥ इत्यादि। इसका विशेष स्वरूप यंत्र परसे जानना। साधु धर्मरथ का पाठ इस प्रकार हैआहारआदि संज्ञा और श्रोत्रआदि इंद्रियों को जीतनेवाले जो मुनि पृथ्वीकायआदिका आरम्भ मन से भी नहीं करते, उन शांतिआदि दशविध धर्म के पालनेवाले मुनियों को मैं वन्दना करता हूं। यह एक भंग हुआ। इस प्रकार सभी भंग जानना।।
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