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________________ - श्राद्धविधि प्रकरणम् 313 'न हणेइ सयं साहू, मणसा आहारसन्नसंवुडओ। सोइंदिअसंवरणो, पुढविजिए खंतिसंपन्नो ॥१॥ इत्यादि। सामाचारीरथ,क्षमणारथ,नियमरथ,आलोचनारथ,तपोरथ,संसाररथ,धर्मरथ, संयमरथ आदिके पाठ भी इसी प्रकार जानना। विस्तार के कारण यहां नहीं कहे गये हैं। अनानुपूर्वि : नवकार की वलकगणना में तो पांच पद आश्रयी एक पूर्वानुपूर्वी, एक पश्चानुपूर्वी और शेष एकसौ अट्ठारह (११८) अनानुपूर्वियां आती हैं। नवपद आश्रित अनानुपूर्वी तो तीन लाख बासठ हजार आठसौ अठहत्तर होती हैं। अनानुपूर्वि आदि गिनने का विचार तथा उसका स्वरूप पूज्य श्रीजिनकीर्तिसूरि कृत 'सटीकपरमेष्ठिस्तव' में से जान लेना चाहिए। इस प्रकार नवकार गिनने से दुष्टशाकिनी, व्यंतर, वैरी, ग्रह, महारोग आदि का शीघ्र ही नाश हो जाता है। यह इसका इस लोक में भी प्रत्यक्ष फल है। परलोक आश्रयी फल तो अनन्त कर्म क्षय आदि है। कहा है कि जो पापकर्म की निर्जरा मास की अथवा एक वर्ष की तीव्र तपस्या से होती है, वही पाप की निर्जरा नवकार की अनानुपूर्वि गुणने से अर्धक्षण में हो जाती है। शीलांग रथ आदि की गणना से भी मन, वचन, काया की एकाग्रता होती है, और उससे त्रिविध ध्यान होता है। सिद्धान्त में भी कहा है कि भंगिक श्रुत की गणना करनेवाला मनुष्य त्रिविध ध्यान में प्रवृत हो जाता इस प्रकार स्वाध्याय करने से धर्मदास की तरह अपने आपको कर्मक्षयादि तथा दूसरों को प्रतिबोधादिक बहुत गुण प्राप्त होता है यथाधर्मदास : धर्मदास नित्य सन्ध्या समय देवसीप्रतिक्रमण करके स्वाध्याय करता था। उसका पिता सुश्रावक होते हुए भी स्वभाव से ही बड़ा क्रोधी था। एक समय धर्मदास ने अपने पिता को क्रोध का त्याग करने के हेतु उपदेश किया। जिससे वह (पिता) बहुत क्रुद्ध हो गया और हाथ में लकड़ी ले, उसको मारने के लिए दौड़ते रात्रि का समय होने से थम्भे से टकराकर मर गया और दुष्टसर्प की योनि में गया। एक समय वह दुष्ट सर्प अन्धकार में धर्मदास को डसने के लिए आ रहा था। इतने में स्वाध्याय करने को बैठे हुए धर्मदास के मुख में से उसने निम्नोक्त गाथा सुनी तिव्वंपि पुव्वकोडीकयंपि सुकयं मुहत्तमित्तेण। कोहग्गहिओ हणिउं, हहा हवइ भवदुगेवि दुही ॥१॥ इत्यादि। इस स्वाध्याय के सुनते ही उस सर्प को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे वह अनशन कर सौधर्मदेवलोक में देवता हुआ, और पुत्र (धर्मदास) को सर्वकार्यों में १. आहारआदि संज्ञाओं का श्रोत्रआदिइंद्रियों का संवरण करनेवाले, पृथ्वीकाय आदिआरम्भ को वर्जनेवाले तथा क्षांति आदि दशविध धर्म को पालनेवाले ऐसे साधु मनसे भी हिंसा न करे।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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