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________________ 304 श्राद्धविधि प्रकरणम् तथा विहार करने पर, रात्रि में निद्रा के अंत में तथा स्वप्न देखने के बाद, इसी तरह नाव में बैठना पड़े तो तथा नदी उतरनी पड़े तो इरियावही करना, ऐसा वचन है। दूसरे श्रावक को साधु की तरह इरियावही में काउस्सग्ग व चोवीसत्थो जैसे कहे हैं, उसी प्रकार साधु की तरह प्रतिक्रमण भी क्यों नहीं कहा जाता? इसके अतिरिक्त श्रावक ने साधु एवं चैत्य का योग न हो तो पौषधशाला में अथवा अपने घर में सामायिक तथा आवश्यक (प्रतिक्रमण) करना। इस प्रकार आवश्यकचूर्णि में भी सामायिक से आवश्यक पृथक् कहा है। वैसे ही सामायिक का काल भी नियमित नहीं । कारण कि, 'जहां विश्रांति ले, अथवा निर्व्यापार बैठे, वहां सर्वत्र सामायिक करना' व 'जब अवसर मिले तब सामायिक करना।' इसमें कुछ भी बाधा नहीं होती, ऐसे चूर्णि के प्रमाणभूत वचन हैं। अब 'सामाइअमुभयसंज्ञं' ऐसा जो वचन है, वह सामायिक प्रतिमा की अपेक्षा से कहा है । कारण कि, वहीं सामायिक का नियमित काल सुनने में आता है। अनुयोगद्वार सूत्र में तो श्रावक को प्रतिक्रमण स्पष्ट कहा है, यथा-साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका ये सब अपने चित्त, मन, लेश्या, सामान्य अध्यवसाय, तीव्र अध्यवसाय तथा इंद्रियां भी आवश्यक में ही तल्लीन कर तथा अर्थ पर अच्छी तरह ध्यान रखकर आवश्यक की ही भावना करते प्रातःकाल तथा संध्या को आवश्यक करे। और भी उसी सूत्र में कहा है कि, जिस लिये साधु और श्रावक को रात्रि तथा दिवस के अंतभाग में आवश्यक करना पड़ता है । इसलिए प्रतिक्रमण को आवश्यक कहते हैं। अतः साधु की तरह श्रावक को भी श्रीसुधर्मास्वामी आदि आचार्य की परंपरा से चलता आया हुआ प्रतिक्रमण मुख्यतः दोनों समय करना चाहिए। कारण कि, उससे दिन में तथा रात्रि में किये हुए पापों की शुद्धि होकर अपार फल प्राप्त होता है। कहा है कि, "जीवप्रदेश में से पापकर्म को निकाल देनेवाला, कषायरूपी भावशत्रु को जीतनेवाला, पुण्य को उत्पन्न करनेवाला और मुक्ति का कारण ऐसा प्रतिक्रमण नित्य दो बार करना चाहिए।" प्रतिक्रमण ऊपर एक ऐसा दृष्टांत सुना जाता है किप्रतिक्रमण की श्रद्धा पर कथा : दिल्ली में देवसीराइप्रतिक्रमण का अभिग्रह पालनेवाला एक श्रावक रहता था। राजव्यापार में कुछ अपराध में आ जाने से बादशाह ने उसके सर्वांग में बेड़ियां कर उसे बंदीगृह में डाला, उस दिन लंघन हुआ था, तो भी उसे संध्यासमय प्रतिक्रमण करने के लिए पहरेदारों को एक टंक सुवर्ण देना कबूल कर दो घड़ी हाथ छुड़ाये, और प्रतिक्रमण किया। इस प्रकार एक मास में उसने साठ टंक सुवर्ण प्रतिक्रम के निमित्त दिये । नियम पालन में उसकी ऐसी दृढ़ता जानकर बादशाह चकित हो गया, और उसने उसे बंदीगृह से मुक्त कर शिरोपाव दिया तथा पूर्व की तरह उसका विशेष सन्मान किया । इस तरह प्रतिक्रमण करने में यतना और दृढ़ता रखनी चाहिए।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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