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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 293 किस प्रकार से उनको रोक सकता है? पश्चात् महत्तरदेवताओं ने माणवकस्तंभ पर की अरिहंत प्रतिमा का न्हवणजल जो आधि, व्याधि, महादोष और महावैर का नाशक है, वह उन पर छिड़का, जिससे वे दोनों शीघ्र शांत हो गये। न्हवणजल की ऐसी महिमा है कि, उससे कोई कार्य असंभव नहीं। पश्चात् उन दोनों ने पारस्परिक वैर त्याग दिया। तब उनके मंत्रियों ने कहा कि, 'पूर्व की व्यवस्था इस प्रकार है' – दक्षिण दिशा में जितने विमान हैं वे सब सौधर्म इन्द्र के हैं, और उत्तर दिशा में जितने हैं उन सब पर ईशान इन्द्र की सत्ता है। पूर्वदिशा तथा पश्चिमदिशा में सब मिलकर तेरह गोलाकार इन्द्रक विमान हैं, वे सौधर्मइन्द्र के हैं। उन्हीं दोनों दिशाओं में त्रिकोण और चतुष्कोण जितने विमान हैं, उनमें आधे सौधर्म इन्द्र के और आधे ईशान इन्द्र के हैं। सनत्कुमार तथा माहेंद्रदेवलोक में भी यही व्यवस्था है। सब जगह इन्द्रकविमान तो गोलाकार ही होते हैं। मंत्रियों के वचनानुसार इस प्रकार व्यवस्थाकर दोनों इन्द्र चित्त में स्थिरता रख, वैर छोड़ परस्पर प्रीति करने लगे। इतने में चन्द्रशेखर देवता ने हरिणेगमेषी देवता को सहज कौतुक से पूछा कि - 'संपूर्ण जगत में लोभ के सपाटे में न आये ऐसा कोई जीव है? अथवा इन्द्रादिक भी लोभवश होते हैं तो फिर दूसरे की बात ही क्या ? जिस लोभ ने इन्द्रादिक को भी सहज ही घर के दास समान वश में कर लिये, उस लोभ का तीनों जगत में वास्तव में अद्भुत एकछत्र साम्राज्य है ।' तब हरिणेगमेषीदेवता ने कहा कि-'हे चन्द्रशेखर ! तू कहता है वह बात सत्य है, तथापि ऐसी कोई भी वस्तु नहीं कि जिसकी पृथ्वी में बिलकुल ही सत्ता न हो। वर्त्तमान में ही श्रेष्ठिवर्य श्रीवसुसार का 'रत्नसार' नामक पुत्र पृथ्वी पर है, वह किसी भी प्रकार लोभवश होनेवाला नहीं। यह बात बिलकुल निःसंशय है। उसने गुरु के पास परिग्रहपरिमाणव्रत ग्रहण किया है। वह अपने व्रत में इतना दृढ़प्रतिज्ञ है कि सर्व देवता व इन्द्र भी उसे चलायमान नहीं कर सकते! दूर तक प्रसरे हुए अपार लोभरूपी जल के तीव्रप्रवाह में अन्य सब तृणसमान बहते जाये ऐसे हैं; परन्तु वह कुमार मात्र ऐसा है कि जो कृष्ण चित्रकला की तरह भीगता नहीं। ' जैसे सिंह दूसरे की गर्जना सहन नहीं कर सकता वैसे ही चन्द्रशेखर देवता हरिगमेषीदेवता का वचन सहन न कर सका और तेरी परीक्षा करने के लिए आया । पिंजरे सहित तेरे तोते को हर ले गया। एक नयी मैना तैयार की, एक शून्य नगर प्रकट किया, और एक भयंकर राक्षसरूप बनाया, उसीने तुझे समुद्र में फेंका, और दूसरा भी डर बताया। पृथ्वी में रत्न के समान हे कुमार! मैं वही चन्द्रशेखर देवता हूं। इसलिए हे सत्पुरुष! तू मेरे इन सर्व दुष्टकर्मों की क्षमा कर, और देवता का दर्शन निष्फल नहीं जाता, इसलिए मुझे कुछ भी आदेश कर ।' कुमार ने देवता को कहा, 'श्री धर्म के सम्यक् प्रसाद से मेरे संपूर्ण कार्य सिद्ध हुए हैं, इसलिए मैं अब तुझसे क्या मांगूं ! परन्तु श्रेष्ठदेवता! तू नंदीश्वर आदि तीर्थों में यात्राएं कर जिससे तेरा देवताभव सफल होगा ।' चन्द्रशेखर देवता ने यह बात स्वीकार की, तोते का पींजरा कुमार के हाथ में
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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