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श्राद्धविधि प्रकरणम् दिया, और कुमार को उठाकर शीघ्र ही कनकपुरी में ला रखा। पश्चात् चन्द्रशेखर देवता राजादि के संमुख कुमार की महिमा वर्णनकर अपने स्थान को गया। इधर रत्नसार ने भी किसी प्रकार राजा की आज्ञा ले दोनों स्त्रियों के साथ उसे अपने नगर की ओर प्रयाण किया। सामन्त, मंत्री आदि राजपुरुष कुमार के साथ उसे पहुंचाने आये। जिससे मार्ग में सभी पुरुष कुमार को राजपुत्र समझने लगे। मार्ग में आये हुए राजाओं ने स्थान-स्थान पर उसका सत्कार किया। क्रमशः कितने ही दिनों के बाद वह रत्नविशालानगरी में आ पहुंचा। राजा समरसिंह भी इसकी ऋद्धि का विस्तार देखकर बहुत से श्रेष्ठियों के साथ अगवानी को आया व बड़े समारम्भ से कुमार का नगरी में प्रवेश करवाया। पूर्वपुण्य की पटुता कैसी विलक्षण है? पारस्परिक आदर सत्कारादि हो जाने के अनन्तर चतुर तोते ने राजादि के संमुख संपूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। जिसे सुन उन सब को बड़ा चमत्कार उत्पन्न हुआ, व कुमार की प्रशंसा करने लगे। ____एक समय उद्यान में 'विद्यानन्द' नामक आचार्य का समवसरण हुआ। राजा रत्नसारकुमार आदि हर्षपूर्वक उनको वंदना करने गये। आचार्य महाराज ने उचित उपदेश दिया। पश्चात् राजा ने आचार्य महाराज से रत्नसारकुमार का पूर्वभव पूछा, तब चतुर्ज्ञानी विद्यानन्दाचार्य इस प्रकार कहने लगेरत्नसार का पूर्वभव : _ 'हे राजन्! राजपुरनगर में धन से संपूर्ण और सुन्दर श्रीसार नामक राजपुत्र था। एक श्रेष्ठिपुत्र, दूसरा मंत्रीपुत्र और तीसरा क्षत्रियपुत्र ऐसे राजपुत्र के तीन मित्र थे। धर्म, अर्थ और काम से जैसे उत्साह शोभता है, वैसे वह राजपुत्र तीनों मित्रों से मूर्तिमंत उत्साह के समान शोभता था। चारों में जो क्षत्रियपुत्र था वह शेष तीनों मित्रों का कलाकौशल देखकर अपने आपकी निंदा किया करता था और ज्ञान को मान देता था। एक समय रानी के महल में किसी चोर ने सेंध लगायी। सुभटों ने उसे माल सहित पकड़ लिया। क्रोध पाये हुए राजा ने उसे शूली पर चढ़ाने का आदेश किया। जल्लाद लोग उसे ले जाने लगे; इतने में दयालु श्रीसारकुमार ने हरिणी की तरह भयभीत दृष्टि से इधर-उधर देखते उस चोर को देखा और यह कहकर कि, 'मेरी माता का द्रव्य हरण करनेवाला यह चोर है, इसलिए मैं स्वयं इसका वध करूंगा।' श्रीसार जल्लादों के पास से उसे अपने अधिकार में लेकर नगरी के बाहर गया व उदार व दयालु राजकुमार ने उसे 'फिर कभी चोरी मत करना' यह कह चुपचाप छोड़ दिया। सत्पुरुषों में अपराधी मनुष्य पर भी अद्भुत दया होती है। मनुष्यों के सब जगह पांच मित्र होते हैं तो पांच शत्रु भी होते हैं। यही दशा कुमार की भी थी। इससे किसीने चोर के छोड़ देने की बात राजा के कान में डाली। 'आज्ञाभंग करना यह राजा का बिना शस्त्र का वध कहलाता है।' ऐसा होने से रुष्ट हुए राजा ने श्रीसार का बहुत तिरस्कार किया जिससे दुःखित व क्रोधित हो कुमार नगर से बाहर निकल गया।
मानी पुरुष अपनी मानहानि को मृत्यु से भी बदतर अनिष्ट मानते हैं। ज्ञान,