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________________ 292 श्राद्धविधि प्रकरणम् कुमार को अपहरणकर आकाश में उड़ गया। और क्रोध से कुमार को घोर समुद्र में डाल दिया। जब मैना पर्वत की तरह कुमार समुद्र में गिरा तब वज्रपात के समान भयंकर शब्द हुआ व मानो कौतुक से ही वह पाताल में जाकर पुनः ऊपर आया। जल का स्वभाव ही ऐसा है। पश्चात् जड़ (जल)मय समुद्र में अजड़ (ज्ञानी) कुमार कैसे रह सकेगा? मानो यही विचार करके राक्षस ने अपने हाथ से उसे बाहर निकाला और कहा कि-'हे हठी और विवेकशून्य कुमार! तू व्यर्थ क्यों मरता है? राज्यलक्ष्मी को क्यों नहीं अंगीकार करता? अरे निंद्य! देवता होते हुए मैंने तेरा निंद्य वचन कबूल किया और तूकुछ मानवी होते हुए मेरा हितकारी वचन भी नहीं मानता है? अरे! अब तू मेरा वचन शीघ्र मान, अन्यथा धोबी जैसे वस्त्र को पछाड़ता है, उसी तरह तुझे पत्थर पर बार-बार पछाड़-पछाड़कर यम के घर पहुंचा दूंगा इसमें संशय नहीं। देवता का कोप व्यर्थ नहीं जाता और उसमें भी राक्षस का तो कदापि नहीं जाता।' यह कह वह क्रोधी राक्षस कुमार के पैर पकड़ उसका सिर नीचे किये हुए पछाड़ने के लिए शिला के पास ले गया। तब साहसी कुमार ने कहा-'अरे राक्षस! तू मन में विकल्प न रखते चाहे सो कर। मुझे बार-बार क्या पूछता है? सत्पुरुषों का वचन एक ही होता है।' पश्चात् अपने सत्त्व का उत्कर्ष होने से कुमार को हर्ष हुआ। उसका शरीर रोमांचित हो गया और तेज तो ऐसा दिखने लगा कि कोई सहन न कर सके। इतने में राक्षस ने जादूगरकी तरह अपना राक्षसरूप हटाकर शीघ्र दिव्य आभूषणों से देदीप्यमान अपना वैमानिक देवता का स्वरूप प्रकट किया, मेघ के जल की वृष्टि की तरह उसने कुमार पर पुष्पवृष्टि की और भाटचारण की तरह संमुख खड़े होकर जयध्वनि की, और आश्चर्य से चकित कुमार को कहने लगा कि, 'हे कुमार! जैसे मनुष्यों में श्रेष्ठ चक्रवर्ती वैसे तू सत्त्वशाली पुरुषों में श्रेष्ठ है। तेरे समान पुरुषरत्न और अप्रतिम शूरवीर के होने से पृथ्वी आज वास्तव में रत्नगर्भा और वीरवती हुई है। जिसका मन मेरुपर्वत के समान निश्चल है, ऐसे तूने गुरु के पास धर्म स्वीकार किया, यह बहुत ही उत्तम किया। इन्द्र का सेनापति हरिणेगमेषी नामक श्रेष्ठ देवता अन्य देवताओं के संमुख तेरी प्रशंसा करता है, वह योग्य है।' __यह सुन रत्नसारकुमार ने चकित हो पूछा कि, 'हरिणेगमेषी देवता मुझ तुच्छ मनुष्य की प्रशंसा क्यों करता है?' देवता ने कहा-'सुन। एक समय नये उत्पन्न हुए होने के कारण सौधर्मेन्द्र और ईशानेन्द्र इन दोनों में विमान के विषय में विवाद हुआ। सौधर्मेन्द्र के विमान बत्तीस लाख, और ईशानेन्द्र के अट्ठाईस लाख होते हैं। वे परस्पर विवाद करने लगे। उन दोनों में दो राजाओं की तरह बाहुयुद्ध आदि अन्य भी बहुत से युद्ध अनेक बार हुए तिर्यंचों में कलह होता है तो मनुष्य शीघ्र उन्हें शांत करते हैं; मनुष्यों में कलह होता है तो राजा समझाते हैं; राजाओं में कलह होता है तो देवता समाधान करते हैं; देवताओं में कलह होता है तो उनके इन्द्र मिटाते हैं; परन्तु जो इन्द्र ही परस्पर कलह करे तो वज्र की अग्नि के समान उनको शांत करना कठिन है। कौन व
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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