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________________ 286 श्राद्धविधि प्रकरणम् क्षणमात्र इस प्रकार खेद करके कुमार पुनः विचार करने लगा कि -'विषभक्षण करने के समान यह खेद करने से क्या शुभ परिणाम होगा? नाश हुई वस्तु की प्राप्ति योग्य उपाय करने से ही सम्भव है । चित्त की स्थिरता से ही उपाय की योजना हो सकती है, अन्यथा नहीं। मंत्र आदि भी चित्त की स्थिरता बिना कदापि सिद्ध नहीं होते । अतएव मैं अब यह निर्धारित करता हूं कि -'मेरे प्रिय तोते के मिले बिना मैं वापस नहीं फिरूंगा।' तदनुसार कुमार तोते की शोध में भ्रमण करने लगा। चोर जिस दिशा की ओर गया था उसी ओर वह भी कितना ही दूर तक चला गया; परन्तु कुछ भी पता नहीं लगा। ठीक ही है, आकाश मार्ग में गये हुए का पता जमीन पर कैसे लगे? अस्तु, तथापि आशा के कारण कुमार शोध करने में विचलित नहीं हुआ। सत्पुरुषों की अपने आश्रितों में कितनी प्रीति होती है? तोते ने देशाटन में साथ रह अवसरोचित मधुर भाषण से कुमार के सिर पर जो ऋण चढ़ाया था, वह ऋण उसकी शोध में अनेक क्लेश सहनकर कुमार ने उतार दिया इस प्रकार भ्रमण करते हुए पूरा एक दिन व्यतीत हो गया। दूसरे दिन स्वर्ग के समान एक नगर संमुख दिखायी दिया। वह नगर गगनस्पर्शी स्फटिकमय कोट से चारों ओर से घिरा हुआ था, उसकी प्रत्येक पोल में माणिक्यरत्न के दरवाजे थे, रत्नजड़ित विशाल महलों के समुदाय से वह नगर रोहणपर्वत की बराबरी करता था, महलों पर सहस्रों श्वेतध्वजाएं फहरा रही थीं, जिससे वह सहस्र मुखी गंगा सा मालूम होता था । भ्रमर जैसे कमल की सुगंध से आकर्षित होता है वैसे नगर की विशेष शोभा से आकर्षित हो रत्नसारकुमार उसके समीप आया। चंदन के दरवाजे से सुगन्धी फैल रही थी तथा जगत् की लक्ष्मी का मानों मुख ही हो ऐसे गोपुरद्वार में कुमार प्रवेश करने लगा इतने में द्वारपालिका की तरह कोट पर बैठी हुई एक सुंदर मैना ने कुमार को अन्दर प्रवेश करते बहुत ही मना किया। इससे कुमार बड़ा चकित हुआ। उसने उच्चस्वर से पूछा - 'हे सुन्दरसारिके! तू मुझे क्यों मना करती है ?' मैना ने उत्तर दिया- 'हे महान्ं पंडित ! तेरे हित के लिए ही मना करती हूं। जो तुझे जीवन की इच्छा हो तो इस नगर में प्रवेश मत कर। तू यह मत समझ कि यह मैना मुझे वृथा मना करती है। मैं जाति की तो पक्षी हूं, तथापि क्या पक्षी जाति में उत्तमता होती ही नहीं है ? उत्तम जीव बिना हेतु एक वचन भी नहीं बोलते। अब मैं जो तुझे रोकती हूं उसका कारण जानने की इच्छा हो तो सुन इस रत्नपुरनगर में पराक्रम व प्रभुता से मानो प्रतिपुरन्दर (दूसरा इन्द्र) ही हो ऐसा पुरन्दर नामक राजा पूर्व में हुआ। उस समय मानो नगर के मूर्तिमंत दुर्भाग्य ही के समान एक चोर तरह-तरह के वेश करके नगर में चोरियां करता था। वह मन चाहे विचित्र प्रकार की सेंध लगाता था । और अपार धन से परिपूर्ण पात्र उठा ले जाता था। किनारे के वृक्ष जैसे नदी के तीव्र जलप्रवाह को नहीं रोक सकते, वैसे कोतवाल तथा दूसरे नगररक्षक आदि बड़े बड़े योद्धा उसे नहीं रोक सके। एक दिन राजा सभा में बैठा था,
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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