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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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अश्व, दास, दासियां, धन आदि बहुत सी वस्तुएं भेंट कीं । तदनन्तर कुमार अपनी दोनों स्त्रियों के साथ वहीं एक महल में रहने लगा। उक्त तोता कौतुक के साथ व्यास की तरह हमेशा कुमार के साथ समस्यापूर्ति, आख्यायिका, प्रहेलिका आदि तरह-तरह के विनोद किया करता था । कुमार ने देदीप्यमान श्रेष्ठ लक्ष्मी की प्राप्ति से मानो मनुष्य सदेह स्वर्ग चला गया हो, इस प्रकार पूर्व की कोई भी बात स्मरण नहीं की। अनेक प्रकार के कामविलास भोगते-भोगते एक वर्ष सहज ही में व्यतीत हो गया।
दैवयोग से एक समय नीच लोगों को हर्ष देनेवाली रात्रि के वक्त कुमार पोपट के साथ बहुत देर तक वार्तालाप रूपी अमृत का पानकर रत्नजड़ित श्रेष्ठ शय्यागृह में सो रहा था। जब अंधकार से समस्त लोगों की दृष्टि को दुःख देनेवाला मध्यरात्रि का समय हुआ तब सब पहरेदार भी निद्रावश हो गये। इतने में दिव्य आकारधारी, देदीप्यमान और मूल्यवान श्रृंगार से सुसज्जित, चोरगति से चलनेवाला व हाथ में नग्न तलवार धारण किये हुए कोई क्रोधी पुरुष, मनुष्यों के नेत्रों की तरह राजमहल के सर्व द्वार बन्द होते हुए भी, न जाने किस प्रकार वहां आ पहुंचा। वह चुपचाप शय्यागृह में घुसा, तो भी दैव की अनुकूलता से शीघ्र ही कुमार जागा । ठीक ही है, सत्पुरुषों की निद्रा स्वल्प व शीघ्र जागृत होनेवाली होती है। कुमार यह विचार कर ही रहा था कि 'यह कौन है? और किसलिए व किस प्रकार शय्यागृह में घुसा ?' इतने में ही उस पुरुष
उच्चस्वर से कहा-' अरे कुमार ! जो तू शूरवीर हो तो संग्राम करने के लिए तैयार हो । जैसे सिंह धूर्त श्रृंगाल के झूठे पराक्रम को सहन नहीं करता, वैसे तेरे समान एक वणिक् के झूठे पराक्रम को क्या मैं सह सकता हूं?" यह बोलते-बोलते ही वह पुरुष तोते का सुन्दर पींजरा उठा उतावल से चलने लगा । कपटी मनुष्यों के कपट के संमुख बुद्धि काम नहीं देती। अस्तु, कुमार भी क्रोध आ जाने से म्यान में से तलवार बाहर निकाल उसके पीछे दौड़ा, आगे-आगे वह पुरुष और पीछे पीछे कुमार दोनों जल्दी-जल्दी चलते एक दूसरे को देखते मार्ग में आये हुए कठिन प्रदेश, घर आदि को सहज में उल्लंघन करते हुए आगे बढ़ते ही जा रहे थे।
जैसे दुष्ट चौकीदार (भूमिहार) मुसाफिर को आड़े मार्ग से ले जाता है वैसे ही वह दिव्यपुरुष कुमार को बहुत ही दूर कहीं ले गया और अन्त में किसी प्रकार कुमार के हाथ आया। कुमार क्रोधावेश से उसे पकड़ने लगा इतने में ही वह देखते ही देखते गरूड़ की तरह आकाश में उड़ गया । व कुछ दूर जाकर अदृश्य हो गया । कुमार विचार करने लगा कि–'निश्चय यह मेरा कोई शत्रु है। कौन जाने विद्याधर, देव या दानव है? कोई भी हो। मेरा यह क्या नुकसान करनेवाला था ? परन्तु मेरे तोतेरूपी रत्न को हरण करने से यह आज तक मेरा शत्रु था, वह अब चोर भी हो गया। हाय! ज्ञानियों में श्रेष्ठ, धीर, शूरवीर शुक! तेरे समान प्रियमित्र के बिना सुभाषण सुनाकर अब मेरे कानों को कौन सुख देगा? हे धीरशिरोमणि! दुर्दशा के समय तेरे सिवाय अन्य कौन मेरी सहायता करेगा?'