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________________ 284 श्राद्धविधि प्रकरणम् का सम्बंध न होते हुए भी उसने उसे परिपूर्ण भोग दिये। अथवा पूर्वभव के प्रबल पुण्य का उदय होने पर आश्चर्य ही क्या है? भरतचक्रवर्ती ने मनुष्यभव में ही क्या चिरकाल तक गंगादेवी के साथ कामभोग नहीं भोगा था? ___ एक समय चक्रेश्वरी की आज्ञा से चन्द्रचूड देवता ने कनकध्वज राजा को वरवधू की बधाई दी। वह पुत्रियों को देखने की दीर्घकाल की उत्कंठा से तथा पुत्रियों की प्रीति ने शीघ्र प्रेरणा करने से सेना के साथ रवाना हुआ व कुछ दिन के बाद वह अंतःपुर, मांडलिक राजागण, मंत्री, श्रेष्ठी आदि परिवार सहित वहां आ पहुंचा। श्रेष्ठ शिष्य जैसे गुरु को नमस्कार करते हैं, वैसे कुमार, तोता, कन्याओं आदि ने शीघ्र संमुख आकर राजा को प्रणाम किया। बहुत काल से माता को मिलने की उत्सुक दोनों राजकन्याएं, बछड़ियां जैसे अपनी माता को प्रेम से आ मिलती हैं, ऐसे अनुपम प्रेम से आ मिली। जगत्श्रेष्ठ रत्नसारकुमार तथा उस दिव्यऋद्धि को देखकर राजादि ने वह दिन बड़ा अमूल्य माना। पश्चात् कुमार ने देवी के प्रसाद से सबकी अच्छी तरह मेहमानी की। जिससे यद्यपि राजा कनकध्वज अपनी नगरी को वापस जाने को उत्सुक था। तो भी वह पूर्व उत्सुकता जाती रही। ठीक ही है, दिव्यऋद्धि देखकर किसका मन स्थिर नहीं होता! राजा व उसके संपूर्ण साथियों को कुमार की की हुई तरह-तरह की मेहमानी से ऐसा प्रतीत हुआ भानों अपने दिन सुकार्य में व्यतीत हो रहे हैं। एक समय राजा ने कुमार को प्रार्थना कि, 'हे सत्पुरुष! जैसे तूने मेरी इन दो . कन्याओं को कृतार्थ कर दी, वैसे ही पदार्पण कर मेरी नगरी को भी पवित्र कर।' तदनुसार कुमार के स्वीकार कर लेने पर, राजा, रत्नसारकुमार, दो राजकन्याएं तथा अन्य परिवार सहित अपनी नगरीकी ओर चला। उस समय विमान में आरूढ़ हो साथ में चलनेवाली चक्रेश्वरी, चन्द्रचूड आदि देवताओं ने मानों भूमि में व्याप्त सेना की स्पर्धा से ही स्वयं आकाश को व्याप्त कर दिया।जैसे सूर्यकिरणों के न पहुंचने से भूमि को ताप नहीं लगता उसी तरह ऊपर विमानों के चलने से इन सर्वजनों को मानों सिर पर छत्र ही धारण किया हो, वैसे ही बिलकुल ताप न लगा। क्रमशःजब वे लोग नगरी के समीप पहुंचे तब वरवधूओं को देखने के लिए उत्सुकलोगों को बड़ा हर्ष हुआ। राजा ने बड़े उत्सव के साथ वरवधूओं का नगर में प्रवेश कराया। उस समय स्थानस्थान में केशर का छिटकाव किया हुआ होने से वह नगरी तरुण स्त्री के समान शोभायमान, घुटने तक फूल बिछाये हुए होने से तीर्थकर की समवसरण भूमि के समान तथा उछलती हुई ध्वजारूपी भुजाओं से मानो हर्ष से नाच ही रही हो ऐसी दिखती थी, ध्वजा की घूघरियों के मधुर स्वर से मानो जगत् की लक्ष्मी का क्रीडास्थल हो। नगरवासी लोग ऊंचे-ऊंचे मंच पर बैठकर मधुर गीत गा रहे थे। सौभाग्यवती स्त्रियों के हंसते हुए मुख से पद्मसरोवर की शोभा आ रही थी तथा स्त्रियों के कमलवत् नेत्रों से वह नगरी नीलकमल के वन सदृश दिखती थी। ऐसी सुन्दरनगरी में प्रवेश करने के अनन्तर राजा ने कुमार को अनेक जाति के
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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