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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 283 उछल रहे थे, सर्व प्रकार के मणिरत्नों से रचा हुआ होने के कारण वह अपने प्रकाश से साक्षात् सूर्यमंडल की तरह निबिड़ अंधकार को भी नष्ट कर रहा था। ऐसे दिव्य विमान में चक्रेश्वरी देवी बैठी, तब उसकी बराबरी की अन्य भी बहुतसी देवियां अपने-अपने विविध प्रकार के विमान में बैठकर उसके साथ आयी तथा बहुत से देवता भी सेवा में तत्पर थे। वर तथा कन्याओं ने गोत्रदेवी की तरह चक्रेश्वरी देवी को नमन किया। तब उसने पतिपुत्रवाली वृद्धा स्त्री की तरह यह आशीष दिया—'हे वधूवरो! तुम सदैव प्रीति सहित साथ रहो और चिरकाल सुख भोगो, पुत्र पौत्रादिक संतति से जगत् में तुम्हारा उत्कर्ष हो।' पश्चात् उसने स्वयं मुख्य होकर चोरीआदि सर्व विवाह सामग्री तैयार की, और देवांगनाओं के धवलगीत गाते हुए यथाविधि महान् आडंबर के साथ उनका विवाहोत्सव पूर्ण किया। देवांगनाओं ने उस समय तोते को वरके छोटे भाई के समान मानकर उसके नाम से धवलगीत गाये महान् पुरुषों की संगति से ऐसा आश्चर्यकारी फल होता है। उन कन्याओं व कुमार के पुण्य का अद्भुत उदय है कि जिनका विवाह मंगल स्वयं चक्रेश्वरीदेवी ने किया। पश्चात् उसने सौधर्मावतंसक विमान के सदृश वहां एक रत्नजड़ित महल बनाकर उनको रहने के लिए दिया। वह महल विविध प्रकार की क्रीड़ा करने के सर्व स्थान पृथक्-पृथक् रचे हुए होने से मनोहर दिखता था। सात मंजिल होने से ऐसा भास होता था मानो सात द्वीपों की सात लक्ष्मियों का निवास स्थान हो, हजारों उत्कृष्ट झरोखों से ऐसा शोभा देता था मानो सहस्रनेत्रधारी इन्द्र हो, चित्ताकर्षक मत्तवारणों से विंध्यपर्वत के समान दिखता था, किसी-किसी स्थान में कर्केतनरत्नों का समूह जड़ा हुआ था जिससे गंगानदी के समान मालूम होता था, कहीं-कहीं बहुमूल्य, वैडूर्यरत्नजड़े हुए होने से जमुनानदी सा प्रतीत होता था, कोईकोई स्थान पद्मरागरत्नजड़ित होने से संध्या के समान रक्तवर्ण हो रहा था, कोई-कोई जगह स्वर्णका कार्य होने से मेरुपर्वत की शाखा सा प्रतीत होता था, कहीं हरिरत्न लगे हुए होने से हरीघास युक्त भूमिसी मनोवेधक शोभा हो रही थी, किसी जगह आकाश के समान पारदर्शक स्फटिकरत्न जड़े होने से स्थल होते हुए आकाश की भ्रमणा होती थी, कोई स्थान में सूर्यकान्तमणि सूर्यकिरण के स्पर्श से अग्निधारण कर रही थी तथा किसी जगह चन्द्रकान्तमणि चन्द्रकिरण के स्पर्श से अमृत वर्षा कर रही थी। सारांश यह कि वह महल इतना दिव्य था जिसका वर्णन ही नहीं किया जा सकता। . रत्नसारकुमार दोगुंदक देवता की तरह दोनों स्त्रियों के साथ उक्त महल में अनेक प्रकार के विषयसुख भोगने लगा। मनुष्य भव में सर्वार्थसिद्धिपन (सर्वार्थसिद्ध विमान का सुख) पाना यद्यपि दुर्लभ है, तथापि कुमार ने तीर्थ की भक्ति से दिव्य ऋद्धि के उपभोग तथा दो सुंदर स्त्रियों के लाभ से वर्तमान भव में ही प्राप्त किया। गोभद्रदेवता ने शालिभद्र को पिता के सम्बन्ध से संपूर्ण भोग दिये इसमें क्या आश्चर्य? परंतु यह तो बड़ी ही आश्चर्य की बात है कि चक्रेश्वरी के साथ कुमार का मातापुत्र आदि किसी जाति
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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