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________________ 282 श्राद्धविधि प्रकरणम् कर ही रही थी कि इतने में सन्मित्र की तरह खेद दूर करनेवाले चन्द्रचूड देवता ने उस हंसिनी परजल छिड़ककर उसे अपनी शक्ति से पूर्ववत् कन्या बनायी। कुमार आदि को हर्ष उत्पन्न करनेवाली वह कन्या उस समय ऐसी दमक ने लगी मानो नयी सरस्वती ही उत्पन्न हुई हो अथवा लक्ष्मी ही समुद्र में से निकली हो! उसी समय दोनों बहनों ने हर्ष से रोमांचित हो एक दूसरे को गाढ़ आलिंगन कर लिया। प्रेम की यही रीति है। रत्नसारकुमार ने कौतुक से कहा-'हे तिलकमंजरि! हमको इस कार्य के उपलक्ष में पारितोषिक अवश्य मिलना चाहिए, हे चन्द्रमुखी! कहो क्या देना चाहती हो? जो कुछ देना हो वह शीघ्र दो, धर्म की तरह औचित्यदान लेने में विलम्ब कौन करे? औचित्यआदि दान, ऋण उतारना, शर्त, निश्चित वेतन लेना, धर्म और रोग अथवा शत्रु का नाश इतने कार्य करने में बिलकुल समय न खोना चाहिए। क्रोध-गुस्सा आया हो, नदी के पूर में प्रवेश करना हो,कोई पापकर्म करना हो, अजीर्ण पर भोजन करना हो और किसी भय के स्थान में जाना हो तो समय बिताना यही श्रेष्ठ है याने इतने कार्य करना हो तो आज का कल पर रख छोड़ना चाहिए।' कुमार के विनोद वचन सुन तिलकमंजरी के मन में लज्जा उत्पन्न हुई, शरीर कांपने लगा, पसीना छूट गया तथा शरीर रोमांचित हो गया। वह स्त्रियों के लीलाविलास प्रकट करने लगी तथा कामविकार से अतिपीड़ित हो गयी तो भी उसने धैर्य रखकर कहा-'हमारे ऊपर आपने महान् उपकार किये हैं अतएव मैं समझती हूं कि सर्वस्व आपको अर्पण करने के योग्य है। इसलिए हे स्वामिन्! मैं आपको यह एक वस्तुदान का निमित्तपात्र देती हूं, ऐसा समझिए।' ऐसा कह हर्षित तिलकमंजरी ने मानो अपना साक्षात् मन हो ऐसा मनोहर मोती का हार कुमार के गले में पहना दिया व कुमार ने भी सादर उसे स्वीकार किया। अपने इष्ट मनुष्य की दी हुई वस्तु स्वीकार ने को प्रेरणा करनेवाली प्रीति ही होती है। अस्तु, तिलकमंजरी ने अपने वचन के अनुसार तोते की भी कमलपुष्पों से पूजा की। उस समय उचित आचरण में निपुण चन्द्रचूड ने कहा कि–'हे कुमार! प्रथम से ही तेरे भाग्य की दी हुई यह दोनों कन्याएं मैं अभी तुझे देता हूं। मंगलकार्यों में अनेकों विघ्न आते हैं, इसलिए तू इनका शीघ्र पाणिग्रहण कर।' यह कहकर वह वर और कन्याओं को अत्यन्त रमणीक तिलकवृक्ष के कुंज में ले गया। चक्रेश्वरी देवी ने रूप बदलकर शीघ्र वहां आ प्रथम से ही सर्व वृत्तान्त जान लिया था अतएव वह विमान में बैठकर शीघ्र वहां आ पहुंची। वह विमान पवन से भी अधिक वेगवाला था। उसमें रत्नों की बड़ी बड़ी घंटाएं टंकार शब्द कर रही थीं, रत्नमय सुशोभित घूघरियों से शब्द करनेवाली सैकड़ों ध्वजाएं उसमें फहरा रहीं थीं, मनोहर माणिक्य-रत्न जड़ित तोरण से वह बड़ा सुन्दर हो गया था, उसकी पुतलिये नृत्य, गीत और वाजिंत्र के शब्द से ऐसी भासित हो रहीं थी मानो बोलती हों, अपार पारिजात आदि पुष्पों की मालाएं उसमें जगह-जगह टंगी हुई थी, हार, अर्धहार आदि से वह बड़ा भला मालूम होता था, सुन्दर चामर उसमें
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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