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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 281 बोली- 'अनिष्ट मनुष्य के साथ सम्बन्ध करने की अपेक्षा मृत्यु मुझे पसंद है, जो तेरी इच्छा मुझे छोड़ने की न हो तो तू अन्य कोई भी विचार न करते शीघ्र मेरा वध कर ।' पश्चात् अशोकमंजरी के पुण्योदय से उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि, 'हाय हाय! धिक्कार है!! मैंने यह क्या दुष्ट कार्य सोचा? अपना जीवन जिसके हाथ में होने से जो जीवन की स्वामिनी कहलाती है, उस प्रिय स्त्री के लिए कौन पुरुष क्रोधवश ऐसा घातकीपन आचरण करता है? सामोपचार से ही सर्व जगह प्रेम उत्पन्न होना संभव है। उसमें भी स्त्रियों पर यह नियम विशेष करके लगता है, पांचालनामक नीतिशास्त्र के कर्त्ता ने भी कहा है कि - 'स्त्रियों के साथ बहुत ही सरलता से काम लेना चाहिए । ' कृपणों का सरदार जैसे अपना धन भंडार में रखता है, वैसे ही विद्याधर राजा ने उपरोक्त विचार करके मन में उल्लास लाकर अपना खड्ग शीघ्र म्यान में रख लिया; और नयी सृष्टि कर्त्ता के समान हो कामकरी विद्या से अशोकमंजरी को मनुष्य भाषा बोलनेवाली हंसिनी बनायी । और माणिक्यरत्नमय मजबूत पींजरे में उसे रखकर पूर्वानुसार उसे प्रसन्न करता रहा। उसकी स्त्री कमला के मन में कुछ संशय उत्पन्न हुआ, इससे उसने सचेत रहकर एक समय अपने पति को हंसिनी के साथ चतुराई से भरे हुए मधुर वचन बोलते हुए स्पष्टतया देखा । जिससे उसको ईर्ष्या व मत्सर उत्पन्न हुआ। इसमें आश्चर्य ही क्या ? स्त्रियों की प्रकृति ऐसी ही होती है। अन्त में उसने अपनी सखीतुल्य विद्या के द्वारा हंसिनी का संपूर्ण वृत्तान्त ज्ञात किया, और हृदय में विंधे हुए शल्य की तरह उसे पींजरे से निकाल बाहर कर दी । यद्यपि कमला ने उसे सौतिया ईर्ष्या से निकाल दी, किन्तु भाग्ययोग से हंसिनी को वही अनुकूल हुआ। नरकसमान विद्याधर राजा के बंधन से छूटते ही वह शबरसेना वन की ओर अग्रसर हुई । 'विद्याधर पीछा करेगा' इस भय से बहुत घबराती हुई धनुष्य से छूटे हुए बाण की तरह वेग से गमन करने के कारण वह थक गयी, और अपने भाग्योदय से विश्राम लेने के लिए यहां उतरी और तुझे देखकर तेरी गोद में आ छिपी । हे कुमारराज! मैं ही उक्त हंसिनी हूं, और जिसने मेरा पीछा किया था व जिसको तूने जीता वही वह विद्याधर राजा है। ' तिलकमंजरी यह वृत्तान्त सुन, बहन के दुःख से दुःखी हो बहुत विलाप करने लगी। स्त्रियों की रीति ऐसी ही होती है । पश्चात् वह बोली- 'हाय हाय ! हे स्वामिनी ! भय की मानो राजधानी के समान अटवी में तू अकेली किस प्रकार रही? दैव की विचित्र गति को धिक्कार है! बहन ! आजतक सुख में रही हुई तूने देवांगनाओं के तिर्यंच के गर्भ में रहने के समान, असह्य व अतिदुःखदायी पंजरवास किस प्रकार सहन किया? हाय हाय! ज्येष्ठभगिनी ! इसीभव में ही तुझे तिर्यंचपन प्राप्त हुआ । दैव नट की 'तरह सुपात्र की भी विडम्बना करता है, अतः उसे धिक्कार है! बहन ! पूर्वभव में तूने कौतुकवश किसीका वियोग कराया होगा और मैंने उस बात की उपेक्षा की होगी, उसीका यह अकथनीय फल मिला है। हाय ! दुर्देव से उत्पन्न हुआ अथवा मानो मूर्तिमंत दुर्भाग्य ही हो, ऐसा तेरा यह तिर्यंचपन कैसे दूर होगा ?' वह इस तरह विलाप
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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