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________________ 280 श्राद्धविधि प्रकरणम् विद्याधर राजा हूं। मैं तेरा दास होकर तुझसे प्रार्थना करता हूं कि मेरे साथ पाणिग्रहण कर और समग्र विद्याधरों की स्वामिनी बन।' 'अग्नि के सदृश दूसरों पर उपद्रव करनेवालेकामांधलोग ऐसी दुष्ट और अनिष्ट चेष्टा करके पाणिग्रहण करने की इच्छा करते हैं, इनको अतिशय धिक्कार है!!' इस प्रकार विचारमग्न अशोकमंजरी ने उसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। जिसकी अनिष्ट चेष्टाएं प्रकट दिखती हो उसको कौन सत्पुरुष उत्तर देता है? 'माता-पिता तथा स्वजन के विरह से इसको अभी नवीन दुःख हुआ है, तथापि अनुक्रम से सुख से यह मेरी इच्छा पूर्ण करेगी।' ऐसी आशा मन में रखकर विद्याधर राजा ने, शास्त्री जैसे अपने शास्त्र का स्मरण करता है, वैसे ही अपना संपूर्ण काम परिपूर्ण करनेवाली सुन्दर विद्या का स्मरण किया। कन्या का स्वरूप गुप्त रखने के हेतु विद्या के प्रभाव से उसने राजकन्या को नट की तरह एक तापसकुमार के स्वरूप में कर दी। सानहीन, बालबुद्धि विद्याधर राजा बड़ी देर तक अशोकमंजरी को मनाता रहा। परन्तु उसे उसके वचन तिरस्कार से मालूम होते थे, सर्व अन्योपचार आपत्तिमय प्रीति से लगते व प्रेमालाप पापवर्ण से लगते थे। विद्याधर राजा के सर्व उपाय, राख में हवन करने, जलप्रवाह में लघुनीति करने, क्षारयुक्त भूमि में बोने, सींचने की तरह निष्फल हुए। तो भी उसने मनाना नहीं छोड़ा। उन्मादरोगी मनुष्य की तरह कामीपुरुषों का हठ अवर्णनीय होता है। वह दुष्ट एक समय किसी कार्य के निमित्त अपने नगर में गया। उस समय उक्त वेशधारी तापसकुमार ने हिंडोले पर क्रीड़ा करते हुए तुझे देखा। वह तुझ पर विश्वास रखकर अपना वृत्तान्त कह रहा था, कि इतने ही में विद्याधर राजा ने वहां आकर पवन जैसे आक के कपास को हरण करता है, उसी प्रकार उसे हरण कर गया, और मणिरत्नों से देदीप्यमान अपने दिव्यमंदिर में ले जाकर क्रोधपूर्वक उसको कहने लगा कि, 'अरे देखने में भोली! वास्तव में चतुर! और बोलने में सयानी! तू कुमार अथवा अन्य किसी के भी साथ तो प्रेम से वार्तालाप करती है, और तुझपर मोहित मुझको उत्तर तक नहीं देती है। अब भी मेरी बात स्वीकार कर। हठ छोड़ दे। नहीं तो दुखदायी यम के समान मैं तुझपर रुष्ट हुआ समझा' यह वचन सुन मन में धैर्य धारणकर अशोकमंजरी ने कहा-'अरे विद्याधर राजा! छलबल से क्या लाभ होगा? छली व बली लोग चाहे राज्यऋद्धिआदि को साधन कर सकते हैं. परन्तु प्रेम को कभी भी नहीं साध सकते। उभय व्यक्तियों के चित्त प्रसन्न हो तभी ही चित्तरूपभूमि में प्रेमांकुर उत्पन्न होते हैं। घृत के बिना जैसे मोदक, वैसे ही स्नेह के बिना स्त्री पुरुषों का सम्बन्ध किस कामका? ऐसा स्नेह रहित संबंध तो जंगल में परस्पर दो लकड़ियों का भी होता है। इसलिए मूर्ख के सिवाय अन्य कौन व्यक्ति स्नेहहीन दूसरे मनुष्य की मनवार करता है? स्नेह का स्थान देखे बिना हठ पकड़नेवाले मतिमन्द मनुष्यों को धिक्कार है!' वह अंकुश रहित विद्याधरराजा अशोकमंजरी के ये वचन सुनकर अत्यन्त क्रोधित हुआ। और शीघ्र म्यान में से खड्ग बाहर निकालकर कहने लगा कि-'अरेरे! मैं अभी ही तेरा वध करूंगा! मेरी निंदा करती है!!' अशोकमंजरी
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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