________________
274
श्राद्धविधि प्रकरणम्
तोते की प्रशंसा की। इतने में ही मधुरशब्दवाले नूपुर से शोभित, मानो आकाश में से चन्द्रमंडली ही गिरती हो ! ऐसी भ्रांति उत्पन्न करनेवाली, अतिशय लंबा पंथ काटने से थकी हुई तथा दूसरी हंसनियां ईर्ष्या से, हंस अनुरागदृष्टि से और कुमार आदि आश्चर्य तथा प्रीति से जिसके तरफ देखते रहे हैं ऐसी एक दिव्य हंसिनी रत्नसारकुमार की गोद में पड़कर लोटने लगी। और मानो असीमप्रीति से ही कुमार के मुख को देखती हुई तथा भय से कांपती हुई मनुष्य भाषा से बोलने लगी कि, 'शक्तिशाली लोगों की पंक्ति में माणिक्य रत्न समान, शरणवत्सल, हे कुमार ! मेरी रक्षा कर! मैं तुझे मेरी रक्षा करने के सर्वथा योग्य समझकर तेरी शरण में आयी हूं कारण कि, महान्पुरुष शरणागत के लिए वज्रपंजर (वज्र के पिंजर) के समान है। किसी समय व किसी भी स्थान में पवन स्थिर हो जाय, पर्वत हिलने लगे, बिना तपाये स्वाभाविक रीति से ही जल अग्नि की तरह जलने लगे, अग्नि बर्फ के समान शीतल हो जाय, परमाणु का मेरु बन जाय, मेरु परमाणु हो जाय, आकाश में अद्धर कमल उगे तथा गधे को सींग आ जाय, तथापि धीरपुरुष शरणागत को कल्पान्त पर्यंत भी नहीं छोड़ते । व शरण में आये हुए जीवों की रक्षा करने के निमित्त विशालसाम्राज्य को भी रजःकण के समान गिनते हैं। धन का नाश करते हैं, और प्राण को भी तृणवत् समझते हैं।'
यह सुनकर रत्नसारकुमार उस हंसिनी के कमलसदृश कोमल पैरों पर हाथ फिराकर कहने लगा कि, 'हे हंसिनी ! भयातुर न हो। मेरी गोद में बैठे रहते कोई राजा, विद्याधरेश तथा वैमानिक देवताओं का अथवा भवनपति का इन्द्र भी तुझे हरण करने को समर्थ नहीं। मेरी गोद में बैठी हुई तू शेषनाग की कंचुकी के समान श्वेत युगलपंखों को क्यो जाती है?' यह कहकर कुमार ने उसे सरोवर में से निर्मल जल और सरस कमल तंतु मंगाकर उसे देकर संतुष्ट की। कुमार आदि के मन में यह संशय आ ही रहा था कि, 'यह कौन है? कहां से आयी ? किससे भयातुर हुई? और मनुष्यवाणी से किस प्रकार बोलती है?' इतने में ही शत्रुओं के करोड़ों सुभटों के निम्नोक्त भयंकर वचन उनके कान में पड़े। 'त्रैलोक्य का अंत करनेवाले यम को कौन कुपित कर सकता है? अपने जीवन की परवाह न करते शेषनाग के मस्तक पर स्थित मणि को कौन स्पर्श कर सकता है ? तथा कौन बिना विचारे प्रलयकाल की अग्निज्वालाओं में प्रवेश कर सकता है?' इत्यादि वचन सुनते ही तोते के मन में शंका उत्पन्न हुई, और वह मंदिर के द्वार पर आकर देखने लगा, उसने गंगा के तीव्र प्रवाह की तरह, आकाश मार्ग में आती हुई विद्याधरराजा की महान् शूरवीर सेना उसके देखने में आयी । तीर्थ के प्रभाव से, कुछ दैविक प्रभाव से, भाग्यशाली रत्नसार के आश्चर्यकारी भाग्य से अथवा उसके परिचय से, कौन जाने किस कारण से तोता शूरवीरपुरुषों का व्रत पालन में प्रधान हुआ। उसने गंभीर और उच्चस्वर से ललकार कर शत्रु की सेना को कहा कि, 'अरे विद्याधर सुभटों! दुष्टबुद्धि से कहां दौड़ते हो? क्या नहीं देखते कि देवताओं से भी न जीता जा सके ऐसा कुमार संमुख बैठा हुआ है? सुवर्णसदृश तेजस्वी काया को धारण