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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 273 वहां तेरा सर्व प्रकार से इष्ट लाभ ही होगा। भगवान् जिनेश्वर महाराज की सेवा से क्या नहीं हो सकता? जो तू यह कहे कि मैं इतनी दूर उस मंदिर में किस प्रकार जाऊं व आऊं? तो हे सुन्दरि! मैं उसका भी उपाय करती हूं, सुन। कार्य का उपाय गड़बड़ में अच्छी तरह न कहा हो तो कार्य सफल नहीं होता। शंकर की तरह सर्वकार्य करने में समर्थ व हरएक कार्य करने में तत्पर चन्द्रचूड़ नामक मेरा एक सेवक देवता है। जैसे ब्रह्मा के आदेश से हंस सरस्वती को ले जाता है। वैसे ही मेरे आदेश से वह देव मयूरपक्षी का रूप करके तुझे वांछित स्थान में ले जायेगा।' चक्रेश्वरी देवी के इतना कहते ही एक मधुर केकारव करनेवाला सुन्दरपक्षधारी मयूर एकाएक प्रकट हुआ। उस अद्वितीय गति दिव्यमयूर पक्षी पर बैठकर देवी की तरह तिलकमंजरी नित्य क्षणमात्र में जिनमहाराज की पूजा करने को आती जाती है। जहां वह आती है, वही यह चित्ताकर्षक वन, वही यह मंदिर, वही मैं तिलकमंजरी और वही यह विवेकी मयूरपक्षी है। हे कुमार! इस प्रकार मैंने अपना वृत्तान्त कह सुनाया। हे भाग्यशाली! अब मैं शुद्ध मन से तुझे कुछ पूछती हूं। आज एक मास पूर्ण हो गया मैं नित्य यहां आती हूं। जैसे मारवाड़ देश में गंगा नदी का नाम भी नहीं मिलता, वैसे मैंने मेरी बहन का अभी तक नाम तक नहीं सुना। हे जगत्श्रेष्ठ! हे कुमार! क्या मेरे ही समान रूपवाली कोई कन्या जगत् में भ्रमण करते हुए तेरे कही देखने में आयी है? तिलकमंजरी के इस प्रश्न पर रत्नसारकुमार ने मधुर स्वर से उत्तर दिया कि, 'भयातुर हिरणी की तरह चंचलनेत्रवाली, त्रैलोक्यवासी सस्त्रियों में शिरोमणि, हे तिलकमंजरी! जगत् में भ्रमण करते मैंने यथार्थ तेरे समान तो क्या बल्कि अंशमात्र से भी तेरे समान कन्या देखी नहीं, और देखूगा भी नहीं। कारण कि,जगत् में जो वस्तु हो तो देखने में आवे,न हो तो कहां से आवे? तथापि हे सुन्दरि! दिव्यदेहधारी, हिंडोले पर चढ़कर बैठा हुआ, सुशोभित तरुणावस्था में पहुंचा हुआ, लक्ष्मीदेवी के समान मनोहर एक तापसकुमार शबरसेना वन में मेरे देखने में आया है। वह मात्र वचन की मधुरता, रूप, आकार आदि से तेरे ही समान था। हे महामना! उस तापसकुमार ने स्वाभाविक प्रेम से मेरा जो आदरसत्कार किया, उस सर्व बात का स्वप्न की तरह विरह हो गया, यह बात जब-जब याद आती है तब-तब मेरा मन अभी भी टुकड़े-टुकड़े होता हो, अथवा जलता हो ऐसा प्रतीत होता है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि तू वही तापसकुमार है अथवा वही तेरी बहन होगी। कारण कि, दैवगति विचित्र होती है।' कुमार यह कह रहा था इतने में उक्त चतुर तोता कलकल शब्द से कहने लगा कि, 'हे कुमार! मैंने यह बात प्रथम से ही जान ली थी और तुझे कहा भी था। मैं निश्चयपूर्वक कहता हूं कि वह तापसकुमार वास्तव में कन्या ही है, और इसकी बहन ही है। मेरी समझ से मास पूर्ण हो गया है, इससे आज किसी भी तरह उसका मिलाप होगा।' 'तिलकमंजरी ने तोते के ये वचन सुनकर कहा कि, हे शुक! जो मैं जगत् में सारभूत मेरी बहन को देखूगी, तो तेरी कमल से पूजा करूंगी।' इत्यादि रत्नसार और तिलकमंजरी ने
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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