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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 261 देना यह प्रीति के ऊपर अग्नि डालने के समान है। जैसे निधान मिलने से निर्धन को आनंद होता है, उसी प्रकार अश्व प्राप्ति से रत्नसारकुमार को बहुत प्रसन्नता हुई। श्रेष्ठवस्तु मिलने पर किसे आनन्द नहीं होता? पश्चात् उदय पर्वत पर आये हुए सूर्य के समान वह रत्नजडित सुवर्ण की काठी चढ़ाये हुए उक्त अश्व पर आरूढ़ हुआ। और वय तथा शील में समान सुशोभित अश्वारूढ़ श्रेष्ठमित्रों के साथ नगर से बाहर निकला। जैसे इन्द्र अपने उच्चैःश्रवा नामक अश्व को चलाता है उसी तरह वह कुमार उक्त अनुपम अद्वितीय अश्व को मैदान में फिराने लगा। कुमार ने उस अश्व को आक्षेप से क्रमशः धौरित, वल्गित, प्लुत और उत्तेजित चारों प्रकार की गति से चलाया। पश्चात् शुक्लध्यान जीव को पंचमगति पर (मुक्ति) पहुंचाता है, उस समय वह जीव जैसे अन्य समस्तजीवों को पीछे छोड़ देता है, उसी प्रकार जब कुमार ने उसे आस्कंदित नामक पांचवी गति को पहुंचाया, तो उसने अन्य सर्व अश्वों को पीछे छोड़ दिया। इतनी ही देर में श्रेष्ठी के घर में जो एक पाला हुआ तोता था उसने उस कार्य का तत्त्व विचारकर श्रेष्ठी वसुसार को कहा कि - ' हे तात! मेरा भाई रत्नसारकुमार इसी समय अश्वरत्न पर आरूढ़ होकर बड़े वेग से जा रहा है, कुमार कौतुक - रसिक व चपल प्रकृति है; अश्व भी हरिण के समान बड़ा ही चालाक व उछल-उछलकर चलनेवाला है, और देव की गति बिजली की दमक से भी अत्यन्त विचित्र है, इसलिए हम नहीं जान सकते कि इस कृत्य का क्या परिणाम होगा? सौभाग्यनिधि मेरे भाई का अशुभ तो कहीं भी नहीं हो सकता, तथापि स्नेही मनुष्यों के मन में अपनी जिस पर प्रीति होती है, उसके विषय में अशुभ कल्पनाएं हुए बिना नहीं रहती। सिंह जहां जाता है वहीं अपनी प्रभुता चलाता है, तथापि उसकी माता सिंहनी का मन अपने पुत्र के सम्बन्ध में अशुभ कल्पना करके अवश्य दुःखी होता है। ऐसी अवस्था में भी शक्त्यनुसार यत्न रखना यही 'पानी आने के पूर्व पाल बांधना यह युक्ति से अच्छा जान पड़ता है। इसलिए हे तात! हे स्वामिन्! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अतिशीघ्र कुमार की शोध के लिए जाऊं। दैव न करे, और कदाचित् कुमार पर कोई आपत्ति आ पड़े, तो मैं हर्षोत्पादक वचन सुनाकर उसकी सहायता भी करूंगा।' श्रेष्ठी ने अपने अभिप्रायानुसार तोते की बात सुनकर कहा कि, 'हे श्रेष्ठ तोते ! तूने ठीक कहा - तेरा मन बहुत शुद्ध है। इसलिए हे वत्स ! अब तू शीघ्र जा। और अतितीव्रवेग से जानेवाले रत्नसारकुमार को विकटमार्ग में सहायताकर लक्ष्मण के साथ होने से जैसे राम सुख से वापस आये, उसी प्रकार तेरे समान प्रियमित्र साथ होने से वह अपनी इच्छा पूर्ण करके निश्चय सुखपूर्वक यहां आ जायेगा।' श्रेष्ठी की आज्ञा मिलते ही अपने को कृतार्थ माननेवाला वह मानवंत तोता, संसार में से जैसे सुबुद्धि मनुष्य बाहर निकलता है, उस प्रकार शीघ्र पींजरे में से बाहर निकला और बाण के समान तीव्रगति से उड़कर शीघ्र ही कुमार को आ मिला। कुमार ने अपने लघुभ्राता की तरह प्रेम से बुलाकर गोद में बिठा लिया। उस अश्व ने मानो मनुष्यरत्न (रत्नसार) की
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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