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________________ 260 श्राद्धविधि प्रकरणम् इनका मुख अश्व के समान क्यों होता? अतएव ये न तो मनुष्य हैं और न देवता; परन्तु कोई अन्य द्वीप में उत्पन्न हुए तिर्यंच जान पड़ते हैं, अथवा किसी देवता के वाहन होंगे?' कुमार का यह कर्णकटु वचन सुनकर दुःखित हो किन्नर बोला, 'हे कुमार! तू कुकल्पना करके मेरी वृथा विडंबना क्यों करता है? जगत् में इच्छानुसार कामविलास करनेवाला में व्यंतर देवता हूं, परन्तु तू मात्र तिर्यंच के सदृश है। कारण कि तेरे पिता ने तुझको एक देवदुर्लभ दिव्य वस्तु से चाकर की तरह दूर रखा है। ___ अरेकुमार!'समरांधकार' नामक एक उत्तम नीलवर्ण अश्व तेरे पिता को पूर्वकाल में किसी दूर द्वीपान्तर में मिला था। जैसे खराब राजा कृश और वक्रमुख धारी, हलके कान का, बिना ठिकाने का, कदम-कदम पर दंड करनेवाला और क्रोधी होता है, वैसे ही वह अश्व भी कृश तथा वक्रमुख, छोटे कर्णवाला, अतिचपल, स्कंध पर बेड़ीरूप चिन्ह वाला और जरा भी प्रहार न सह सके ऐसा है। यद्यपि वह अश्व दुष्टराजा के समान है तथापि यह आश्चर्य है कि वह सब लोगों के मन को आकर्षित करनेवाला तथा अपनी व अपने स्वामी की ऋद्धि को बढ़ानेवाला है। कहा है कि-'कृश मुख, मध्यम शरीरवाला (न तो बहुत मोटा और न बहुत पतला), छोटे कानवाला, ऊंचे स्कंध और चौडेवक्षस्थलवाला, स्निग्धरोमवाला, पुष्टपा से (पुढे) वाला, विशालपीठवाला और तेजवेगवाला इत्यादि श्रेष्ठ गुणधारक अश्व हो उस पर राजा को बैठना चाहिए। पवन से भी चपल वह अश्व 'सवार का मन अधिक आगे दौड़ता है, कि मैं दौड़ता हूं? मानो इसी स्पर्धा से एक दिन में सो कोस जाता है। ऐसे लक्ष्मी के अंकुररूप अश्व पर जो मनुष्य सवार होता है,वह सात दिन में अलौकिक वस्तु पाता है, यह बड़े ही आश्चर्य की बात है! अरे कुमार! तू स्वयं अपने घर तक की तो गुप्त बात जानता ही नहीं है, और पंडिताई का अहंकारकर अज्ञानवश वृथा मेरी निन्दा करता है? जो तू अश्व को प्राप्त कर लेगा, तो तेरा धैर्य और चतुराई मालूम होगी' इतना कह वह किन्नर किन्नरी के साथ आकाश में उड़ गया। ___ यह अपूर्व बात सुन रत्नसारकुमार घर आया और अपने को बहुत ठगाया हुआ मान, मन में म्लान हो शोक करने लगा व घर के मध्यभाग में जा द्वार बंदकर पलंग पर जाकर बैठ गया। तब खिन्न हो पिता ने आकर उससे कहा कि, 'हे वत्स! तुझे क्या कष्ट हुआ? क्या कोई मानसिक अथवा शारीरिक पीड़ा उत्पन्न हुई? स्पष्ट कह जिससे मैं उसका उपाय करूं, क्योंकि बिना वीधे तो मोती की भी परीक्षा नहीं हो सकती' पिता के इन वचनों से संतुष्ट हो रत्नसार ने शीघ्र द्वार खोला और जो बात हई थी वह तथा जो कुछ मन में थी सो स्पष्ट कह दी। पिता ने अत्यन्त विस्मित हो कहा कि, 'हे वत्स! हमारा पुत्र इस सर्वोत्तम अश्व पर बैठकर भूतल पर चिरकाल तक भ्रमण करता रहे और हमको वियोग से दुःखी करे।' इस कल्पना से मैंने आजतक उस अश्वको प्रयत्न के साथ गुप्त रखा, परन्तु अब तो तेरे हाथ में सौंपना ही पड़ेगा परन्तु तुझे उचित जान पड़े वही कर। यह कह पिता ने हर्ष से रत्नसारकुमार को उक्त अश्व दे दिया। मांगने पर भी न
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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