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________________ 259 श्राद्धविधि प्रकरणम् तेजोलेश्या (मन में उत्पन्न हुई सुख की प्राप्ति) का उल्लंघन करते हैं। जो मनुष्य संतोषी नहीं, उसको बहुत से चक्रवर्ती राज्यों से, बहुत से धन से तथा सर्वभोगोपभोग के साधनों से भी सुख उत्पन्न नहीं होता। सुभूमचक्रवर्ती, कोणिक राजा, मम्मण शेठ, हासाप्रहासापति आदि मनुष्य संतोष न रखने से ही दुःखी हुए। कहा है कि अभयकुमार के समान संतोषी मनुष्य को जो कुछ सुख मिलता है वह सुख असंतोषी चक्रवर्ती अथवा इन्द्र को भी नहीं मिल सकता। ऊपर-ऊपर देखनेवाले सब दरिद्री हो जाते हैं: परन्त नीचे-नीचे देखनेवाले किस मनुष्य का बड़प्पन वृद्धि को प्राप्त न हुआ? इससे सुख को पुष्टि देनेवाले सन्तोष को साधने के लिए तू अपनी इच्छा के अनुसार धनधान्य आदि परिग्रह का परिमाण कर। धर्म, नियम लेकर स्वल्पमात्र पालन किया हो, तो भी उससे अपार फल प्राप्त होता है। परन्तु नियम लिये बिना बहुतसा धर्म पाला हो तो भी उससे अल्पमात्र ही फल मिलता है। देखो! कुए में स्वल्पमात्र झरना होता है परन्तु उसके नियमित होने से जल कभी भी नहीं खुटता, और सरोवर का जल किनारे तक भरा हो तो भी वह अनियमित होने से सूख जाता है। मनुष्य ने नियम लिया हो तो वह संकट के समय भी नहीं छूटता और नियम का बन्धन न हो तो सुदशा में होते हुए भी कभी-कभी धर्मकृत्य छूट जाता है। इसी प्रकार नियम लेने से ही मनुष्य की धर्म में दृढ़ता होती है। देखो! दामनी (रस्सी) में बांधने से ही पशु भी अच्छी तरह स्थिर रहते हैं। धर्म का जीवन दृढ़ता, वृक्ष का जीवन फल, नदी का जीवन जल, सुभट का जीवन बल, ठग का जीवन असत्य,जल का जीवन शीतलता और भक्ष्य वस्तुओं का जीवन घृत है। इसलिए चतुर पुरुषों को धर्मकृत्य का नियम लेने में तथा लिये हुए नियम में दृढ़ता रखने में अत्यन्त दृढ़ प्रयत्न करना चाहिए। कारण कि, उससे वांछितसुख की प्राप्ति सुखपूर्वक होती है।' रत्नसारकुमार ने सद्गुरु का यह कथन सुनकर इस प्रकार सम्यक्त्व सहित परिग्रहपरिमाणव्रत लिया कि, 'मैं मेरे अधिकार में एक लाख रत्न, दस लाख सुवर्ण, आठ-आठ मूड़े (मापविशेष) मोती और प्रवाल (मुंगे) के, आठ करोड स्वर्णमुद्रा, दस हजार भार चांदी आदि धातुएं, सो मूड़े धान्य, एक लाख भार शेष किराना, छः दश हजार गायों का एक गोकुल ऐसे ६, पांचसो घर तथा हाट, चारसो वाहन, एक हजार घोड़े और सो हाथी रखूगा। इससे अधिक संग्रह नहीं करूंगा तथा राज्य और राज्यकार्य भी नहीं करूंगा। श्रद्धावन्त रत्नसारकुमार इस प्रकार पांच अतिचार रहित पांचवें अणुव्रत को अंगीकारकर श्रावकधर्म पालन करने लगा। एक समय वह पुनः अपने शुद्धहृदयी मित्रों के साथ फिरते फिरते 'रोलंबलोल' नामक बगीचे में आया। बगीचे की शोभा देखता हुआ वह क्रीड़ापर्वत पर गया। वहां उसने दिव्यरूप और दिव्यवेषधारी एक किन्नर के जोड़े को दिव्यगान करते हुए देखा, उन दोनों का मुख अश्व के समान और शेष अंग मनुष्य के समान था। ऐसे अद्भुत स्वरूप को देखकर कुमार ने हंसकर कहा कि, 'जो ये मनुष्य अथवा देवता होते तो -
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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