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________________ 256 श्राद्धविधि प्रकरणम् प्रहर दिन के पूर्व भोजन नहीं करना तथा भोजन के बिना मध्याह्न का उल्लंघन न होने देना। कारण कि, प्रथम प्रहर में पूर्व के दिन खाये हुए अन्न का रस बनता है, इसलिए नवीन भोजन नहीं करना, और बिना भोजन किये मध्याह्न का उल्लंघन करने से बल क्षय होता है, अतएव दूसरे प्रहर में अवश्य भोजन करना चाहिए। सुपात्र को दान आदि करने की युक्ति इस प्रकार हैसुपात्र दान कैसे करना? : श्रावक को भोजन के अवसर पर परमभक्ति से मुनिराज को निमंत्रणाकर अपने घर लाना अथवा श्रावक को स्वेच्छा से आते हुए मुनिराज को देख उनका स्वागतादिक करना। पश्चात् क्षेत्र संवेगी साधुओं से भावित है कि, अभावित है? काल सुभिक्ष है कि दुर्भिक्ष है? देने की वस्तु सुलभ है कि दुर्लभ है? तथा पात्र (मुनिराज) आचार्य है, अथवा उपाध्याय गीतार्थ, तपस्वी, बाल, वृद्ध, रोगी, समर्थ किंवा असमर्थ है? इत्यादि का मन में विचार करना। और स्पर्धा, बड़प्पन, ईर्ष्या, प्रीति, लज्जा, दाक्षिण्य, 'अन्यलोग दान देते हैं अतः मुझे भी उसके अनुसार करना चाहिए' ऐसी इच्छा, प्रत्युपकार की इच्छा, कपट, विलंब, अनादर, कटुभाषण, पश्चात्ताप आदि दान के दोष उत्पन्न न होने देना। तदनन्तर केवल अपने जीव पर अनुग्रह करने की बुद्धि से बयालीस तथा दूसरे दोष रहित, सम्पूर्ण अन्न, पान, वस्त्र आदि वस्तु; अनुक्रम से प्रथम भोजन, पश्चात् अन्य वस्तु इस रीति से स्वयं मुनिराज को देना। अथवा स्वयं अपने हाथ में पात्र आदि धारणकर, पास में खड़े रहकर अपनी स्त्री आदि के पास से दान दिलाना। आहार के बयालीस दोष पिंडविशुद्धि आदि ग्रंथ में देख लेना चाहिए।' दान देने के अनन्तर मुनिराज को वन्दनाकर उन्हें कम से कम अपने घर के द्वार तक पहुंचाकर आना। मुनिराज का योग न हो तो 'मेघ बिना वृष्टि के समान जो कहीं से मुनिराज पधारें तो मैं कृतार्थ हो जाऊं' ऐसी भावनाकर मुनिराज के आने की दिशा की ओर देखना। कहा है कि जं साहूण न दिन्नं, कहिंपि तं सावया न भुंजन्ति। पत्ते भोअणसमए, दारस्सालोअणं कुज्जा ।।१।। जो वस्तु साधु मुनिराज को नहीं दी जा सकी, वह वस्तु किसी भी प्रकार सुश्रावक नहीं खाते. अतएव भोजन के समय पर द्वार के तरफ दृष्टि रखनी चाहिए। मुनिराज का निर्वाह दूसरी प्रकार से होता हो तो अशुद्ध आहार देनेवाले गृहस्थ तथा लेनेवाले मुनिराज को हितकारी नहीं, परन्तु दुर्भिक्ष आदि होने से जो निर्वाह न होता हो, तो आतुर के दृष्टान्त से वही आहार दोनों को हितकारी है। पहसंतगिलाणेसुं, आगमगाहीसुं तहय कयलोए। उत्तरपारणगंमि अ, दिन्नं सुबहुप्फलं होइ ।।१।। १. इससे श्रावक को साधुओं के आचार का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए यह सिद्ध होता है।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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