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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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कितना स्पष्ट दिखने में आता है? एक दिन कर्मवश धनमित्र अकेला सुमित्र श्रेष्ठि के घर गया। सुमित्र श्रेष्ठी करोड़ मूल्य का एक रत्न का हार बाहर रखकर कार्यवश घर में गया व शीघ्र ही वापस आया। इतने ही में रत्न का हार अदृश्य हो गया। सुमित्र यह समझकर कि, 'यहां धनमित्र के बिना और कोई नहीं था अतएव इसीने हार लिया है। ' 'उसे राजसभा में ले गया। धनमित्र जिनप्रतिमा के अधिष्ठायक समकिती देवता का काउस्सग्ग कर प्रतिज्ञा करने लगा। इतने में ही सुमित्र की कटीही (कमर) में से वह रत्न काहार निकला। जिससे सब लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ । इस विषय में ज्ञानी को पूछने पर उन्होंने कहा कि, 'गंगदत्त नाम का गृहपति और मगधा नामक उसकी भार्या थी। गंगदत्त ने अपने श्रेष्ठी की स्त्री का एक लक्ष्य मूल्यवाला रत्न गुप्तरीति से ग्रहण किया । श्रेष्ठी की स्त्री ने कई बार मांगा परन्तु अपनी स्त्री में मोह होने से गंगदत्त ने उस पर 'तेरे संबंधियों ने उक्त रत्न चुराया है।' यह कहकर झूठा आरोप लगाया। जिससे श्रेष्ठी की स्त्री बहुत खिन्न होकर तपस्विनी हो गयी और मरकर व्यंतर हुई। मगधा मरकर सुमित्र हुआ और गंगदत्त मरकर धनमित्र हुआ। उस व्यंतर ने क्रोध से सुमित्र के आठ पुत्रों को मार डाला व अभी रत्न हार हरण किया। आगे भी सर्वस्व हरण करेगा व बहुत से भव तक वैर का बदला देगा। अरेरे! वैर का परिणाम कैसा अपार व असह्य है ? आरोप लगाने से धनमित्र के सिरपर आरोप आया। धनमित्र के पुण्य से आकर्षित हो सम्यग्दृष्टि देवता ने व्यंतर से बलात्कार पूर्वक वह हार छुड़ाया।' ज्ञानी के ये वचन सुनकर संवेग पाये हुए राजा तथा धनमित्र ने राजपुत्र को गादी पर बिठा दीक्षा ले सिद्धि प्राप्त की... . इत्यादि ।
मध्याह्न का कर्तव्य
मूलगाथा τ
मज्झण्हे जिणपूआ, सुपत्तदाणाइजुत्ति भुंजित्ता । पच्चक्खाइ अ गीअत्थ- अंतिए कुणइ सज्झायं ॥८॥
अर्थ : दुपहर के समय पूर्वोक्त विधि से उत्तम कमोद के चावल इत्यादि से तैयार की हुई सम्पूर्ण रसोई भगवान् के संमुख धर के दूसरी बार पूजाकर, तथा सुपात्र को दान आदि देने की युक्ति न भूलते स्वयं भोजनकर गीतार्थ गुरु के पास जाना और वहां पच्चक्खाण व स्वाध्याय करना। मध्याह्न की पूजा तथा भोजन का काल नियमित नहीं। जब तीव्र क्षुधा लगे वही भोजन का काल समझने की रूढ़ि है । अतएव मध्याह्न के पूर्व भी ग्रहण किया हुआ पच्चक्खाण पालकर, देवपूजा करके भोजन करे तो दोष नहीं। वैद्यशास्त्र में तो ऐसा कहा है कि
याममध्ये न भोक्तव्यं, यामयुग्मं न लङ्घयेद् ।
याममध्ये रसवृद्धि, यामयुग्मं [रसोत्पर्त्तियुग्मादूर्ध्वं] बलक्षयः ।।१।।