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________________ 254 श्राद्धविधि प्रकरणम् धनमित्र की कथा : विनयपुरं नगर में धनवान ऐसा वसुभद्रा का 'धनमित्र' नामक पुत्र था। वह बाल्यावस्था में माता-पिता की मृत्यु हो जाने से अत्यन्त दुःखी तथा धनहानि होने से अत्यन्त दरिद्री हो गया। तरुण हो गया तथापि उसे कन्या न मिली। तब लज्जित होकर वह धनोपार्जन करने गया । भूमि में गड़ा हुआ धन निकालने के उपाय, जादुगरी, सिद्धरस, मंत्र, जल की तथा स्थल की मुसाफिरी, तरह-तरह के व्यापार, राजादिक की सेवा इत्यादि अनेक उपाय किये तो भी उसे धन प्राप्ति न हुई जिससे अतिशय उद्विग्न हो उसने गजपुरनगर में केवली भगवान् को अपना पूर्व भव पूछा। उन्होंने कहा, 'विजयपुर नगर में एक अत्यन्त कृपण गंगदत्त नामक गृहपति रहता था। वह बड़ा मत्सरी था तथा किसीको दान मिलता अथवा किसीको लाभ होता तो उसमें भी अंतराय करता था। एक समय सुन्दर नामक श्रावक उसे मुनिराज के पास ले गया। उसने कुछ भाव से तथा कुछ दाक्षिण्यता से प्रतिदिन चैत्यवंदन पूजा आदि धर्मकृत्य करना स्वीकार किया । कृपण होने के कारण पूजा आदि करने में वह प्रमाद करता था, परन्तु चैत्यवंदन करने के अभिग्रह का उसने बराबर पालन किया। उस पुण्य से हे धनमित्र ! तू धनवान् वणिक् का पुत्र हुआ और हमको मिला। तथा पूर्वभव में किये हुए पाप से महादरिद्री और दुःखी हुआ। जिस जिस रीति से कर्म किये जाते हैं, वही उनकी अपेक्षा सहस्रगुणा भोगना पड़ता है, यह विचार कर उचित आचरण से रहना चाहिए।' केवली के ऐसे वचनों से प्रतिबोध पाये हुए धनमित्र ने श्रावकधर्म स्वीकार किया तथा रात्रि और दिन के प्रथम प्रहर में धर्माचरण का अभिग्रह ग्रहण किया। पश्चात् वह एक श्रावक के घर ठहरा। प्रभातकाल में माली के साथ बाग से पुष्प एकत्रित करके वह घर देरासर में भगवान की परमभक्ति से पूजा करने लगा, तथा दूसरे, तीसरे आदि प्रहर में देशविरुद्ध, राजविरुद्ध आदि को छोड़ व्यवहार शुद्धि तथा उचित आचरण से शास्त्रोक्त रीति के अनुसार व्यापार करने लगा, जिससे उसको सुखपूर्वक निर्वाह के योग्य द्रव्य मिलने लगा और ज्यों-ज्यों उसकी धर्म में स्थिरता हुई त्यों-त्यों उसको अधिकाधिक धन मिलने लगा और धर्मकरणी में व्यय भी अधिक होने लगा। क्रमशः वह अलग घर में रहने लगा तथा एक श्रेष्ठी की कन्या से विवाह भी कर लिया। एक समय गायों का समूह जंगल में जाने को निकला तब वह गुड़, तैल आदि बेचने गया। गायों का गोवाल अंगारे समझकर एक सुवर्ण का भंडार फेंक रहा था। उसे देख धनमित्र ने कहा-' इस सुवर्ण को क्यों फेंक रहे हो?' ग्वाले ने उत्तर दिया कि, 'पूर्व में भी हमारे पिताजी ने 'यह स्वर्ण है' ऐसा कहकर हमको ठगा, अब तूं भी हमको ठगने आया है' धनमित्र ने कहा- 'मैं असत्य नहीं कहता ।' उसने कहा, 'ऐसा हो तो हमको गुड़ आदि वस्तु देकर यह सुवर्ण आदि तू ही ले जा ।' धनमित्र ने वैसा ही किया। जिससे उसे तीस हजार सुवर्ण मुद्राएं मिलीं तथा अन्य भी उसने बहुतसा धन कमाया जिससे वह धनवान् श्रेष्ठी हो गया। धर्म का महात्म्य इसी भव में
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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