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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 253 लताओं को तनिक भी बाधा नहीं पहुंचा सकता। विद्वान् लोग शत्रु को प्रथम बढ़ाकर पश्चात् उसका समूल नाश करते हैं। कारण कि प्रथम गुड़ खाकर अच्छी तरह बढ़ाया हुआ कफ सुख से बाहर निकाला जा सकता है। जैसे समुद्र वडवानल को नियमित जल देता है, वैसे ही बुद्धिशाली पुरुष सर्वस्व हरण करने को समर्थ शत्रु को अल्पअल्प दान देकर प्रसन्न करते हैं। लोग पैर में घुसे हुए कांटे को जैसे हाथ में के कांटे से निकाल डालते हैं, वैसे ही चतुरपुरुष एक तीक्ष्ण शत्रु से दूसरे तीक्ष्ण शत्रु को जीत सकता है। जैसे अष्टापद पक्षी मेघ का शब्द सुन उसकी तरफ उछल-उछलकर अपना शरीर तोड़ डालता है, उस तरह अपनी तथा शत्रु की शक्ति का विचार न करते जो शत्रु पर धावा करता है, वह नष्ट हो जाता है। जैसे कौवीने सुवर्णसूत्र से कृष्ण सर्प को नीचे गिराया, उसी तरह चतुरमनुष्य को जो कार्य पराक्रम से न हो सके उसे युक्ति से करना । नख तथा सींगवाले जानवर, नदी, शस्त्रधारी पुरुष, स्त्री और राजा इनका कभी भी विश्वास न करना । सिंह से एक, बगुले से एक, मुर्गे से चार, कौए से पांच, श्वान से छः और गधे से तीन शिक्षा लेना चाहिए। सिंह जैसे सर्व शक्ति से एक छलांग मारकर अपना कार्य का साधन करता है, उसी प्रकार चतुरपुरुष को थोड़ा अथवा अधिक जो कार्य करना हो, उसे सर्व शक्ति से करना । बगुले की तरह कार्य का विचार करना, सिंह की तरह पराक्रम करना, भेड़िये की तरह छापा मारना और खरगोश की तरह भाग जाना चाहिए। १ सर्व प्रथम उठना, २ लड़ना, ३ बंधुवर्ग में खाने की वस्तुएं वितरण करना, ४ स्त्री को प्रथम वश में कर पश्चात् भोगना । ये चार शिक्षाएं मुर्गे से लेना, १ एकान्त में रतिक्रीड़ा करनी, २ समय पर ढिठाई रखना, ३ अवसर आने पर घर बांधना, ४ प्रमाद न करना और ५ किसी पर विश्वास न रखना ये पांच शिक्षाएं कौए से लेना । १ स्वेच्छानुसार भोजन करना, २ समय पर अल्प मात्र में संतोष रखना, ३ सुखपूर्वक निद्रा लेना, ४ सहज में जागृत होना, ५ स्वामि पर भक्ति रखना और ६ शूरवीर रहना । ये छः शिक्षाएं कुत्ते से लेना । १ उठाया हुआ बोझा ले जाना, २ शीत तथा ताप की परवाह न रखना, और ३ सदा संतुष्ट रहना, ये तीन शिक्षाएं गधे के पास से लेना।' इत्यादि । नीतिशास्त्र आदि में कहे हुए समस्त उचित आचरणों का सुश्रावक को सम्यग् रीति से विचार करना। कहा है कि - जो मनुष्य हित-अहित, उचित-अनुचित, वस्तुअवस्तु को स्वयं जान नहीं सकता वह मानो बिना सींग के पशुरूप से संसाररूपी वन में भटकता है। जो मनुष्य बोलने में, देखने में, हंसने में, खेलने में, प्रेरणा करने में, रहने में, परीक्षा करने में, व्यवहार करने में, शोभने में, धनोपार्जन करने में, दान देने में, हालचाल करने में, पढ़ने में, हर्षित होने में और वृद्धि पाने में कुछ नहीं समझता, वह निर्लज्जशिरोमणि संसार में किसलिए जीवित रहता होगा? जो मनुष्य अपने और दूसरे के स्थान में बैठना, सोना, भोगना, पहनना, बोलना आदि यथारीति से जानता है, वह श्रेष्ठ विद्वान है। अस्तु । व्यवहार-शुद्धि आदि तीनों शुद्धि से धनोपार्जन करने पर इस प्रकार दृष्टान्त है
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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