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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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वैसे ही 'मार्गप्रयास से थके हुए, रोगी, लोच किये हुए, आगम दर्शित शुद्ध वस्तु ग्रहण करनेवाले मुनिराज को और तप के उत्तर पारणे में दान दिया हो, उससे बहुत फल होता है। इस प्रकार श्रावक देश तथा क्षेत्र जानकर प्रासुक तथा एषणीय आहार योगानुसार दे। अशन, पान, स्वादिम, खादिम औषध और भैषज आदि सर्व वस्तुएं प्रासुक व शद्ध हो, वे मुनिराज को दे, मुनिराज को किस प्रकार निमन्त्रणा करना तथा गोचरी किस प्रकार वहोराना इत्यादिक विधि ' श्राद्धप्रतिक्रमण वृत्ति' से समझ लेना चाहिए। यह सुपात्रदान ही अतिथिसंविभागव्रत कहलाता है, कहा है कि
न्यायोपार्जित तथा कल्पनीय अन्नपान आदि वस्तु का, देश, काल, श्रद्धा, सत्कार और क्रम का पूर्ण ध्यान रखकर, पूर्णभक्ति से अपनी आत्मा पर अनुग्रह करने की बुद्धि से साधुमुनिराज को दान देना, यही अतिथिसंविभाग कहलाता है। सुपात्रदान से दिव्य तथा औदारिक आदि वांछित भोग की प्राप्ति होती है, सर्वसुख की समृद्धि होती है, तथा चक्रवर्ती आदि की पदवी प्रमुख मिलती है और अंत में थोड़े ही समय में निर्वाण सुख का लाभ होता है। कहा है कि
अभयं सुपत्तदाणं, अणुकंपाउचिअकित्तिदाणं च । दोहिवि मुक्खो भणिओ, तिन्निवि भोगाइअं दिति ||१|
१ अभयदान, २ सुपात्रदान, ३ अनुकंपादान, ४ उचितदान और ५ कीर्तिदान ऐसे दान के पांच प्रकार हैं। जिसमें प्रथम दो प्रकार के दान से भोगसुख पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होती है और अंतिम तीन प्रकार के दान से केवल भोगसुखादिक ही मिलता है। सुपात्र के लक्षण ये हैं
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पात्र के प्रकार :
उत्तमपत्तं साहू, मज्झिमपत्तं च सावया भणिया।
अविरयसम्मदिट्ठी, जहन्नपत्तं मुणेअव्वं ॥१॥
उत्तमपात्र साधु, मध्यमपात्र श्रावक और जघन्यपात्र अविरति सम्यग्दृष्टि । वैसे ही कहा है कि
मिथ्यादृष्टिसहस्रेषु, वरमेको ह्यणुव्रती । अणुव्रतसहस्रेषु वरमेको महाव्रती ॥२॥ महाव्रतिसहस्रेषु, वरमेको हि तात्त्विकः । तात्त्विकस्य समं पात्रं न भूतं न भविष्यति ||३|| सत्पात्रं महती श्रद्धा, काले देयं यथोचितम् । धर्मसाधनसामग्री, बहुपुण्यैरवाप्यते ॥ ४ ॥ अनादरो विलम्बश्च, वैमुख्यं विप्रियं वचः । पश्चात्तापश्च पञ्चापि, सद्दानं दूषयन्त्यमी ||५||
१. संपादक लिखित 'ऐसे बहराएँ आहार' पुस्तक पढ़ना आवश्यक है।