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________________ 15 श्राद्धविधि प्रकरणम् प्रत्युपकुर्वन् बह्वपि न भवति पूर्वोपकारिणस्तुल्यः। एकोऽनुकरोति कृतं निष्कारणमेव कुरुतेऽन्यः ।।१।। 'कोई पुरुष अपने ऊपर उपकार करनेवाले का इष्ट कार्य करके कितना ही बदला दे, किंतु वह अपने ऊपर प्रथम उपकार करनेवाले की कदापि समानता नहीं कर सकता। कारण कि, वह मनुष्य प्रथम उपकार करनेवाली व्यक्ति का उपकार ध्यान में रखकर उसका अनुकरण करता है। तथा प्रथम उपकार करनेवाला पुरुष तो किसी भी प्रकार के बदले की आशा न रखते हुए उपकार करता है।' इस प्रकार विचारकर राजा प्रीतिपूर्वक तोते की तरफ देखने लगा, इतने में प्रातःकाल के समय सूर्य के प्रकाश से अदृश्य हुआ बुध का तारा जैसे कहीं नहीं दीखता वैसे ही वह तोता भी देखने में नहीं आया। राजा विचार करने लगा कि 'मैं कुछ तो भी उपकार का बदला दूंगा, इस भय से उत्तम प्राणी (तोता) उपकार करके कहीं दूर चला गया, इसमें कोई संशय नहीं। कहा है कि इयमुच्चधियामलौकिकी महती काऽपि कठोरचित्तता। उपकृत्य भवन्ति दूरतः परतः प्रत्युपकारभीरवः ।।१।। बुद्धिशाली सत्पुरुषों के मन की कोई अलौकिक तथा बहुत ही कठोरता है कि,वे उपकार करके प्रत्युपकार के भय से शीघ्र इधर-उधर हो जाते हैं। ऐसा ज्ञानी जीव निरंतर पास रहे तो कठिन प्रसंग आदि सब कुछ ज्ञात हो सकता है। कोई भी आपत्ति हो वह सहज में दूर की जा सकती है। अथवा ऐसा सहायक जीव प्रायः मिलना ही दुर्लभ है। कदाचित् मिल भी जावे तो दरीद्री के हाथ में आये हुए धन की तरह अधिक समय तक पास नहीं रह सकता। यह तोता कौन है? यह इतना जानकार कैसे हुआ? मुझ पर यह इतना दयालु क्यों ? कहां से आया? और इस वृक्ष पर से कहां गया? यह सब घटना कैसे हुई? मेरी सेना यहां किस प्रकार आयी? इत्यादिक मुझे संशय है। परंतु जैसे गुफा के अंदर के अंधकार को बिना दीपक कोई दूर नहीं कर सकता, वैसे ही उस तोते के बिना इस संशय को कौन दूर कर सकता है?' इस प्रकार के नाना विचारों से राजा व्यग्र हो गया। इतने में उसके मुख्य सेवकों ने इस घटना का वर्णन पूछा। राजा ने आरंभ से ही संपूर्ण वृत्तांत तोते का कह सुनाया। उसे सुनकर सर्व सेवकगण चकित व हर्षित हुए और बोले कि, 'हे महाराज! थोड़े ही समय में आपका व तोते का कहीं भी पुनः समागम होगा'। क्योंकि जो पुरुष किसी का हित करने की इच्छा करता है वह उसकी अपेक्षा रखे बिना भी नहीं रहता। जिस तरह सूखा हुआ पत्ता शीघ्र टूट जाता है, वैसे ही आपके मन का संशय भी ज्ञानी मुनिराज को पूछने से शीघ्र नष्ट हो जायगा। कारण कि ऐसी कौनसी बात है जो ज्ञानीपुरुष नहीं जान सकते? इसलिए हे महाराज! आप सब चिंता छोड़कर नगर में पधारिये, ताकि मेघ के दर्शन से जैसे मोर को हर्ष होता है वैसे आपके दर्शन से नगरवासी लोगों को आनंद हो।'
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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