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________________ 14 श्राद्धविधि प्रकरणम् दोष? नायक रहित राज्य को लेने की बुद्धि किसे नहीं होती? कोई रखवाला नहीं हो तो खेत को सूअर के समान क्षुद्र प्राणी भी क्या नहीं खा जाते? अथवा विवश होकर राज्य की ऐसी अवस्था करनेवाले मुझे ही धिक्कार है। कोई भी कार्य में विवेक न करना यह सर्व आपदाओं की वृद्धि करनेवाला है। विवेक बिना कुछ भी करना, धरोहर रखना, किसी पर विश्वास करना, देना, लेना, बोलना, छोड़ना, खाना आदि सब मनुष्य को प्रायः पश्चात्ताप पैदा करते हैं। कहा है कि सगुणमपगुणं वा कुर्वता कार्यजातं, परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्तेर्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः।। गुणयुक्त अथवा गुणरहित कोई भी कार्य करना हो तो बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि कार्य आरंभ करने के पूर्व उसका परिणाम सोचना चाहिए। जिस तरह हृदयादि मर्मस्थल में घुसा हुआ शस्त्र हृदय में मरण तक की पीड़ा करता है उसी प्रकार विवेक बिना एकाएक कोई कार्य करने से भी मरण पर्यंत क्लेश होता है।' इस तरह राज्य की आशा छोड़ मन में नाना प्रकार के पश्चात्ताप करते मृगध्वज राजा को तोते ने कहा कि, 'हे राजन! व्यर्थ पश्चात्ताप न कर। मेरे वचनों के अनुसार कार्य करने से कभी अशुभ नहीं होता। योग्य वैद्य की योजनानुसार उपचार करने पर व्याधि कभी भी बाधा नहीं कर सकती। हे राजन्! तू यह न समझ कि, मेरा राज्य मुफ्त में चला गया। अभी तू बहुत समय तक सुखपूर्वक राज्य भोगेगा।' ज्योतिषी की तरह तोते के ऐसे वचन सुनकर मृगध्वज राजा अपना राज्य पुनः पाने की आशा करने लगा। इतने में ही वन में लगी हुई अग्नि के समान चारों तरफ फैलती हुई चतुरंगिणी सेना तितर-बितर आती देख भय से मन में विचार करने लगा कि-'जिसने मुझे इतनी देर तक दीनता उत्पन्न करवायी वही यह शत्रु की सेना मुझे यहां आया जानकर निश्चय ही मेरा वध करने के लिए दौड़ती आ रही है। अब मैं अकेला इस स्त्री की रक्षा कैसे करूं? व इनसे किस तरह लडूं? इस तरह विचार करते राजा 'किंकर्तव्यविमूढ' हो गया। इतने में 'हे स्वामिन्! जीते रहो,विजयी हो, आपके सेवकों को आज्ञा दो। महाराज! जिस प्रकार गया हुआ धन वापस मिलता है वैसे ही पुनः आज आपके दर्शन हुए। बालक के समान इन सेवकों की ओर प्रेम-दृष्टि से देखो।' इत्यादि वचन बोलनेवाली अपनी सेना को देखकर मृगध्वज राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। पश्चात् हर्षित होकर राजाने सैनिकों से पूछा कि, 'तुम यहां किस प्रकार आये?' सैनिकों ने उत्तर दिया कि, 'हे प्रभो! यहां पधारे हुए आपके चरणों का दर्शन करना हमको उचित है। परंतु ज्ञात नहीं कि हमको जल्दी से कौन व किस प्रकार यहां ले आया। महाराज! आपके अहोभाग्य से यह कोई देवताओं का प्रभाव हुआ मालूम होता है।' यह आश्चर्यकारक घटना देखकर राजा बहुत चकित हुआ और मन में तर्क करने लगा कि 'कदाचित् यह इस तोते के ही वचन का प्रभाव है। मुझे इसका बहुत मान सत्कार करना चाहिए क्योंकि, इसने मझपर अनेक उपकार किये हैं। कहा है कि
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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