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________________ 244 श्राद्धविधि प्रकरणम् एक मनुष्य पृथक्-पृथक राजा को मिलने जाये तो उससे एक दूसरे के मन में वैर आदि उत्पन्न होता है, अतएव सभी मिलकर जावे तथा सब की योग्यता समान होने पर भी किसी एक को मुख्य (अगुआ) कर बाकी सबको उसके साथ रहना; राजा के हुक्म से मंत्री के द्वारा परीक्षा करने के लिए दी हुई एक शय्या पर सोने के लिए विवाद करनेवाले पांचसो मूर्ख सुभटों की तरह कुसंप से राजा की भेट लेने अथवा विनती करने आदि के लिए न जाना चाहिए। कहा है किबहूनामप्यसाराणां, समुदायो जयावहः। तृणैरावेष्टिता रज्जुर्यया नागोऽपि बध्यते ॥१॥ चाहे जैसी असार वस्तु हो तो जो बहुतसी एकत्र हो जावे तो विजयी हो जाती है देखो,तृण समूह से बनी हुई रस्सी हाथी को भी बांध रखती है। गुप्त सलाह प्रकट करने से कार्य भंग हो जाता है तथा समय पर राजा का कोप आदि भी होता है; इसलिए गुप्त सलाह कदापि प्रकट न करना चाहिए। परस्पर चुगली करने से राजादि अपमान तथा समय पर दंड आदि भी कर देते हैं। तथा समव्यवसायी लोगों का कुसंप से रहना नाश का कारण है। कहा है कि—एक पेटवाले और भिन्न भिन्न फल की इच्छा करनेवाले भारंड पक्षी की तरह कुसंप से रहनेवाले लोग नष्ट हो जाते हैं। जो लोग एक दूसरे के मर्म की रक्षा नहीं करते वे सर्प की तरह मरणान्त कष्ट पाते हैं। समुवट्ठिए विवाए, तुलासमाणेहिं चेव ठायव्वं। कारणसाविक्खेहिं, विहुणेअव्वो न नयमग्गो ॥३८॥ अर्थः कोई विवाद आदि उत्पन्न हो जाये तो तराजु के समान रहना। स्वजन सम्बन्धी तथा अपनी ज्ञाति के लोगों पर उपकार करने अथवा रिश्वत खाने की इच्छा से न्यायमार्गका उल्लंघन न करना। बलिएहिं दुब्बलजणो, सुंककराईहिं नाभिभविअव्वो। थेवावराहदोसेऽवि दंडभूमिं न नेअव्वो ।।३९।। अर्थः प्रबल लोगों के द्वारा दुर्बल लोगों को अधिक कर-राजदंड आदि से न सताना तथा थोड़ासा अपराध होने पर ही उनको एकदम दंड न करना। कर आदि से पीड़ित मनुष्य पारस्परिक प्रीति न होने से संप छोड़ देते हैं। संप न होने से बलिष्ठ लोग भी अपने झुंड से अलग हुए सिंह की तरह जहां-तहां पराभव पाते हैं। इसलिए परस्पर संप रखना उचित है। कहा है किसंहतिः श्रेयसी पुंसां, स्वपक्षे तु विशेषतः। तुरैरपि परिभ्रष्टा, न प्ररोहन्ति तन्दुलाः ।२।। मनुष्यों का संप कल्याणकारी है। जिसमें भी अपने-अपने पक्ष में तो अवश्य ही
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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