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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 245 संप चाहिए। देखो, फोतरे से अलग हुए चांवल ऊग नहीं सकते। जो पर्वतों को फोड़ देता है तथा भूमि को भी फाड़ डालता है, उसी जलप्रवाह को तृणसमूह रोक देता है। यह संप की महिमा है। कारणिएहिपि समं, कायव्वो ता न अत्थसम्बन्धो। किं पुण पहुणा सद्धिं, अप्पहिअं अहिलसंतेहिं? ॥४०॥ अर्थः अपने हित की इच्छा करनेवाले लोगों को राजा, देवस्थान अथवा धर्मखाते के अधिकारी तथा उनके अधीनस्थ लोगों के साथ लेन-देन का व्यवहार न करना। तो फिर राजा के साथ तो कभी भी व्यवहार न करना इसमें तो कहना ही क्या है? राजा के अधिकारी आदि के साथ व्यवहार न करने का कारण यह है कि, वे लोग धन लेते समय तो प्रायः प्रसन्नमुख से वार्तालापकर तथा उनके वहां जाने पर बैठने को आसन, पान सुपारी आदि देकर झूठा बाह्य आडम्बर बताते हैं, तथा भलाई प्रकट करते हैं। परन्तु समय आने पर खरा लेना मांगें तो 'हमने तुम्हारा अमुक काम नहीं किया था क्या?' ऐसा कह अपना किया हुआ तिल के फोतरे के समान यत्किंचित् मात्र उपकार प्रकट करते हैं, और पूर्व के दाक्षिण्य को उसी समय छोड़ देते हैं। ऐसा उनका स्वभाव ही है। कहा है किद्विजन्मनः क्षमा मातुर्दुषः प्रेम पणस्त्रियाः। नियोगिनश्च दाक्षिण्यमरिष्टानां चतुष्टयम् ।।१।। १ ब्राह्मण में क्षमा, २ माता में द्वेष, ३ गणिका में प्रेम और ४ अधिकारियों में दाक्षिण्यता ये चारों अरिष्ठ हैं। इतना ही नहीं, बल्कि उलटे देनेवाले को झूठे अपराध लगाकर राजा से दंड कराते हैं। कहा है कि उत्पाद्य कृत्रिमान् दोषान्, धनी सर्वत्र बाध्यते। निर्धनः कृतदोषोऽपि, सर्वत्र निरुपद्रवः ।।१।। लोग धनवान् मनुष्य पर झूठे दोष लगाकर उस पर उपद्रव करते हैं, परन्तु निर्धन मनुष्य अपराधी भी हो तो भी उसे कोई नहीं पूछता। राजा के साथ धन का व्यवहार न रखने का कारण यह है कि, किसी सामान्य क्षत्रिय से भी अगर अपना लेना मांगे तो वह खड्ग बतलाता है तो भला स्वभाव से ही क्रोधी ऐसे राजाओं की क्या बात कहना? इत्यादि समव्यवसायी नगर के लोगों के सम्बन्ध में उचित आचरण है। समान व्यवसाय न करनेवाले नगर के लोगों के साथ भी उपरोक्त कथनानुसार ही यथायोग्य बर्ताव करना चाहिए। एअं परुप्परं नायराण पारण समुचिआचरणं। परतित्थिआण समुचिअमह किंपि भणामि लेसेणं ॥४१।। अर्थः नगर के लोगों को परस्पर किस प्रकार उचित आचरण करना चाहिए सो
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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