SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - श्राद्धविधि प्रकरणम् 239 प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्याः, परोक्षे मित्रबान्धवाः। कर्मान्ते दासभृत्याश्च, पुत्रा नैव मृताः स्त्रियः ।।१।। गुरु की उनके संमुख, मित्र तथा बान्धवों की उनके पीछे, नौकर दास आदि को उनका काम अच्छा होने पर तथा स्त्रियों की उनके मर जाने के अनन्तर स्तुति करनी चाहिए, परन्तु पुत्र की स्तुति तो बिलकुल ही न करना। कदाचित् इसके बिना न चले तो स्तुति करना पर प्रत्यक्ष न करना, कारण कि, इससे उनकी गुणवृद्धि रुक जाती है व वृथा अहंकार पैदा होता है। दंसेइ नरिंदसमं देसंतरभावपयडणं कुणइ। इच्चाइ अवच्चगयं, उचिअंपिउणो मुणेअव्वं ॥२३॥ अर्थः पिता ने पुत्र को राजसभा बताना, तथा विदेश के आचार और व्यवहार भी स्पष्टतः बताना। इत्यादि पिता का पुत्र के सम्बन्ध में उचिताचरण है। राजसभा दिखाने का कारण यह है कि, राजसभा का परिचय न हो तो किसी समय दुर्दैव वश यदि कोई आकस्मिक संकट आ पड़े तब वह कायर हो जाता है तथा परलक्ष्मी को देखकर जलनेवाले शत्रु उसको हानि पहुंचाते हैं। कहा है किगन्तव्यं राजकुले, द्रष्टव्या राजपूजिता लोकाः। यद्यपि न भवन्त्यर्थास्तथाप्यन विलीयन्ते ।।१।। राज दरबार में जाना तथा राज्य मान्य लोगों को देखना चाहिए। यद्यपि उससे कोई अर्थलाभ नहीं होता तथापि अनर्थका नाश तो होता ही है। इसलिए राजसभा का परिचय अवश्य करना चाहिए। विदेश के आचार तथा व्यवहार स्पष्टतः बताने का कारण यह है कि, परदेश के आचार व्यवहार का ज्ञान न हो और कारणवश कहीं जाना पड़े तो वहां के लोग इसे परदेशी समझकर सहज ही में व्यसन के जाल में फंसा दें। अतएव प्रथम से ही अच्छी तरह समझा देना चाहिए। पिता की तरह माता को भी पुत्र तथा पुत्रवधू के सम्बन्ध में यथा सम्भव उचित आचरण पालन करना। माता को सौतेले लड़के के सम्बन्ध में विशेष उचित आचरण पालना। कारण कि, वह प्रायः सहज में ही भिन्नभाव समझने लग जाता है। इस विषय में सौतेली मा की दी हुई उड़द की राबड़ी ओकनेवाले (वमन करनेवाले) पुत्र का उदाहरण जानना। सयणाण समुचिअमिणं, जं ते निअगेहवुद्धिकज्जेसु। संमाणिज्ज सयावि हु, करिज्ज हाणीसु वि समीवे ॥२४॥ अर्थः पिता, माता तथा स्त्री के पक्ष के लोग स्वजन कहलाते हैं। उनके सम्बन्ध में पुरुष का उचित आचरण इस प्रकार है। अपने घर में पुत्र जन्म तथा विवाह सगाई प्रमुख मंगल कार्य हो तब उनका सदा आदर सत्कार करना, वैसे ही उनको किसी प्रकार की हानि हो जाये तो अपने पास रखना।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy