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श्राद्धविधि प्रकरणम्
राजा भोज के राज्यान्तर्गत धारानगरी में एक घर के अंदर अत्यंत कुरूप और निर्दयी पुरुष तथा अतिरूपवती व गुणवान स्त्री थी। दूसरे घर में इससे प्रतिकूल याने पुरुष उत्तम और स्त्री कुरूप थी। एक समय दोनों जनों के घर में चोरों ने धाड़ (खात्र) पाड़ी (सेंध लगाई) और दोनों बे जोड़ों को देखकर कुछ न बोलते सुरूप स्त्री सुरूप पुरुष के पास और कुरूप स्त्री कुरूप पुरुष के पास बदल दी। जहां सुरूप को सुरूप का संयोग हुआ, वे दोनों स्त्री पुरुष पूर्व में बहुत उद्विग्न थे अतः बहुत हर्षित हुए, परन्तु जिसको कुरूप स्त्री मिली उसने राजसभा में विवाद चलाया। राजा ने डौंडी पिटवाई, तब चोर ने आकर कहा कि, 'हे महाराज ! रात्रि में परद्रव्य का हरण करनेवाले मैंने विधाता की भूल सुधारी व एक रत्न का दूसरे रत्न के साथ योग किया।' चोर की बात सुनकर हंसते हुए राजा ने वही बात कायम रखी। (यह लौकिक उदाहरण समझना । )
विवाह के भेद आदि आगे कहे जायेगे । 'उसे घर के कार्यभार में लगाना ।' ऐसा कहने का यह कारण है कि, घर के कार्यभार में लगा हुआ पुत्र सदैव घर की चिंता में रहने से स्वच्छन्दी अथवा मदोन्मत्त नहीं हो जाता। वैसे ही धन कमाने के कष्ट का अनुभव हो जाने से अनुचित व्यय करने का विचार भी न कर सके। 'घर की मालिकी सौंपना।' यह कहा, उसका कारण यह है कि, बड़े पुरुषों के छोटों के सिर पर योग्य वस्तु सौंप देने से छोटों की प्रशंसा होती है। घर का कार्यभार योग्य परीक्षा करके छोटा पुत्र योग्य हो तो उसीके सिर पर सौंपना । कारण कि, ऐसा करने से ही निर्वाह होता है, तथा इससे शोभा आदि भी बढ़ना संभव है । प्रसेनजित राजा ने प्रथम समस्त पुत्रों की परीक्षा करके सौवें (सबसे छोटे ) पुत्र श्रेणिक को राज्य सौंपा। पुत्र की ही तरह पुत्री, भतीजे आदि के सम्बन्ध में भी योग्यतानुसार उचित आचरण जानना। ऐसा ही पुत्रवधू के लिए समझो। जैसे धनश्रेष्ठी ने चावल के पांच दाने दे परीक्षा करके चौथी बहू रोहिणी को ही घर की स्वामिनी बनायी । तथा उज्झिता, भोगवती और रक्षिता इन तीनों बड़ी बहुओं को अनुक्रम से गोबर आदि निकालने का, रसोई बनाने का तथा भंडार का काम सौंपा।
पच्चक्खं न पसंसइ, वसणोवहयाण कहइ दुरवत्थं । आयं वयमवसेसं च सोहए सयमिमेहिंतो ॥२२॥
अर्थ ः पिता पुत्र की उसके संमुख प्रशंसा न करे, यदि पुत्र किसी व्यसन में पड़ जाये तो उसे द्यूतादिव्यसन से होनेवाली धननाश, लोक में अपमान, तर्जना, ताड़ना आदि दुर्दशा सुनाये, जिससे वह व्यसनों से बचे, तथा लाभ, खर्च व बेलेंस (हिसाब) देखता रहे, जिससे पुत्र स्वेच्छाचारी भी न होने पावे तथा अपना बड़प्पन भी रहे। 'पुत्र की उसके संमुख प्रशंसा न करे ।' ऐसा कहने का यह हेतु है कि, प्रथम तो पुत्र की प्रशंसा करना ही नहीं। कहा है कि
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