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श्राद्धविधि प्रकरणम् उपकार है। इत्यादि पुरुष का स्त्री के सम्बन्ध में उचित आचरण जानना। अब पुत्र के सम्बन्ध में पिता का उचित आचरण कहते हैं
पुत्तं पइ पुण उचिअं, पिठणो लालेइ बालभावंमि।
उम्मीलिअबुद्धिगुणं, कलासु कुसलं कुणइ कमसो ।।१९।। अर्थः पिता बाल्यावस्था में पौष्टिक अन्न, स्वेच्छा से हिरना-फिरना, नाना
प्रकार के खेल आदि उपायों से पुत्र का लालन-पालन करे, और उसकी बुद्धि के गुण खिलें तब उसे कलाओं में कुशल करे। बाल्यावस्था में पुत्र का लालन-पालन करने का यह कारण है कि, उस अवस्था में जो उसका शरीर संकुचित और दुबला रहे तो वह फिर कभी भी पुष्ट नहीं हो सकता, इसीलिए कहा है किलालयेत्पञ्च वर्षाणि, दश वर्षाणि ताडयेत्। प्रासे तु षोडशे वर्षे, पुत्रं मित्रमिवाचरेत् ॥१॥
पुत्र का पांच वर्ष की अवस्था होने तक लालन-पालन करना, उसके बाद दस वर्ष तक अर्थात् पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक ताड़ना करना और सोलहवां वर्ष लग जाने पर पिता को पुत्र के साथ मित्र की तरह बर्ताव करना चाहिए।
गुरुदेवधम्मसुहिसयणपरिचयं कारवेइ निच्चंपि।
उत्तमलोएहिं समं, मित्तीभावं रयावेई ।।२०।। अर्थः पिता पुत्र को गुरु, देव, धर्म, सुहृद् तथा स्वजनों का सदैव परिचय करावे।
तथा श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ उसकी मित्रता करावे। गुरु आदि का परिचय बाल्यावस्था में ही हो जाने से वल्कलचीरि की तरह मन में सदा उत्तम ही भावनाएँ रहती हैं। उच्चजाति के कुलीन तथा सुशील मनुष्यों के साथ मित्रता हो तो कदाचित् भाग्यहीनता से धन न मिले, तथापि आगन्तुक अनर्थ तो निस्सन्देह दूर हो जाते हैं। अनार्य देश का निवासी होने पर भी
आर्द्रकुमार को अभयकुमार की मित्रता उसी भव में सिद्धि का कारण हुई। गिण्हावेइ अ पाणिं, समाणकुलजम्मरूवकन्नाणं।
गिहभारंमि निमुंजइ, पहुत्तणं विअरइ कमेण ॥२१॥ अर्थः पिता ने पुत्र का कुल, जन्म व रूप में समानता रखनेवाली कन्या के साथ
विवाह करना, उसे घर के कार्यभार में लगाना तथा अनुक्रम से उसको घर की मालिकी सौंपना। 'कुल जन्म व रूप में समानता रखनेवाली कन्या के साथ विवाह करना' यह कहने का कारण ऐसा है कि, अनमेल पतिपत्नी का योग हो जाय तो उनका वह गृहवास नहीं, विडंबना मात्र है। तथा पारस्परिक प्रेम कम हो जाय तो संभव है कि दोनों अनुचित कृत्य करने लगें। जैसा कि