SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 240 श्राद्धविधि प्रकरणम् सयमवि तेसिं वसणूसवेसु होअव्वमंतिमि सया। खीणविहवाण रोगाउराण कायव्वमुद्धरणं ।।२५।। अर्थः स्वजनों पर कोई संकट आ जाये अथवा उनके यहां कोई उत्सव हो तो स्वयं भी सदैव वहां जाना। तथा वे निर्धन अथवा रोगातुर हो जाये तो उनका उस संकट में से उद्धार करना। कहा है किआतुरे व्यसने प्राप्ते, दुर्भिक्षे शत्रुसङ्कटे। राजद्वारे श्मशाने च, यस्तिष्ठति स बान्धवः ।।१।। उत्सव, रोग, आपदा, दुर्भिक्ष, शत्रुविग्रह, राजद्वार और श्मशान में जो साथ रहता है वही बान्धव कहलाता है। स्वजन का उद्धार करना वास्तव में अपना ही उद्धार है। कारण कि जैसे रहेंट के घड़े क्रमशः भरते व खाली होते है वेसे ही मनुष्य भी धनी व निर्धन होता है। किसीकी भी धनी अवस्था या दरिद्रता चिरकाल तक स्थिर नहीं रहती। इसलिए कदाचित् दुर्दैववश अपनी भी हीनावस्था आ जायें तो पूर्व में जिस पर अपनने उपकार किया हो वही आपत्ति से अपना उद्धार करता है। इसलिए समय पर स्वजनों का संकट में से उद्धार अवश्य करना चाहिए। खाइज्ज पिट्ठिमंसं,न तेसि कुज्जा न सक्ककलहं च। तदमित्तेहिं मित्तिं, न करिज्ज करिज्ज मित्तेहिं ।।२६।। अर्थः पुरुषको स्वजनों की पीठ पर निन्दा न करना; उनके साथ हास्य आदि में भी शुष्कवाद न करना, कारण कि, उससे चिरसंचित प्रीति भी ट्ट जाती है। उनके शत्रुओं के साथ मित्रता न करे व उनके मित्रों से मित्रता करे। तयमावे तग्गेहं, न वइज्ज चइज्ज अत्थसम्बन्धी गुरुदेवधम्मकज्जेतु एकचित्तेहिं होअव्वं ॥२७॥ अर्थः पुरुष को स्वजन घर में न हो, और उसके कुटुम्ब की केवल स्त्रियां ही घर में हो, तो उनके घर में प्रवेश न करना, स्वजनों के साथ द्रव्य का व्यवहार न करना, तथा देव का, गुरु का अथवा धर्म का कार्य हो तो उनके साथ एकचित्त होना। स्वजनों के साथ द्रव्य का व्यवहार न करने का कारण यह है कि, उनके साथ व्यवहार करते समय तो ऐसा ज्ञात होता है कि प्रीति बढ़ती है; परन्तु परिणाम में उस प्रीति के बदले शत्रुता बढ़ती है। कहा है कियदीच्छेद्विपुलां प्रीतिं, त्रीणि तत्र न कारयेत्। वाग्वादमर्थसम्बन्ध, परोक्षे दारदर्शनम् (भाषणम्) ॥१॥ जहां विशेष प्रीति रखने की इच्छा हो वहां तीन बातें न करना। एक वादविवाद, दूसरी द्रव्य का व्यवहार और तीसरी उनकी अनुपस्थिति में उनकी स्त्री से भाषण, धर्मादिक कार्य में एकचित्त होने का कारण यह है कि, संसारी काम में भी स्वजनों के
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy