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________________ 230 श्राद्धविधि प्रकरणम् जो धर्म संबंधी श्रेष्ठ एक ही वचन सुनकर, उसका मन में यथोचित विचारकर अंत समय में मृत्यु को प्राप्त होकर किसी देवलोक में देवता हो जावे। पश्चात् वह देवता अपने पूर्वोक्त धर्माचार्य को जो दुर्भिक्षवाले देश में से सुभिक्षदेश में लाये, घोर जंगल में से पार उतारे, अथवा किसी जीर्णरोग से पीड़ित उक्त धर्माचार्य को निरोग करे तो भी उससे उनका बदला नहीं दिया जा सकता। परन्तु वह पुरुष केवलिभाषित धर्म से भ्रष्ट हो गये अपने उस धर्माचार्यको केवलिभाषित धर्म समझाकर, अंतर्भेद सहित प्ररूपणाकर पुनः धर्म में स्थापित करे तभी धर्माचार्य के उपकार का बदला दिया जा सकता है। माता-पिता की सेवा करने पर, अपने अंधे माता-पिता को कावड़ में बैठाकर स्वयं कंधे पर उठा उनको तीर्थयात्रा करानेवाला श्रवण उत्कृष्ट उदाहरण है। मातापिता को केवलिभाषित धर्म में स्थापन करने के ऊपर अपने पिताजी को दीक्षा देनेवाले श्री आर्यरक्षितसूरि का अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी माता-पिता को प्रतिबोध हो वहां तक निरवद्यवृत्ति से घर में रहे हुए कूर्मापुत्र का दृष्टान्त जानो। अपने सेठ को धर्म में स्थापन करने के ऊपर प्रथम किसी मिथ्यात्वी श्रेष्ठी के मुनीमपणे से स्वयं धनिक हुआ और समयान्तर से दुर्भाग्यवश दारिद्र को प्राप्त हुए उस मिथ्यात्वी श्रेष्ठी को धनादिक दे पुनः उसे धनिक बनानेवाले और श्रावक धर्म में स्थापन करनेवाले जिनदासश्रेष्ठी का दृष्टान्त जानना। अपने धर्माचार्य को पुनः धर्म में स्थापन करने के ऊपर निद्रादिप्रमाद में पड़े हुए शेलकाचार्य को बोध करानेवाले पंथकशिष्य का दृष्टान्त समझो। इत्यादिक पिता संबंधी उचित आचरण हैं। मातासंबंधी उचित आचरण भी पिता की तरह ही जानना ।। माता सम्बन्धी उचित आचरण में जो विशेषता है वह कहते हैं नवरं से सविसेसं, पयडइ भावाणुवित्तिमप्पडिमं। इत्थीसहावसुलहं, पराभवं वहइ न हुजेण ।।७।। अर्थः माता सम्बन्धी उचित आचरण पिता समान होते हुए भी उससे इतना विशेष है कि, माता स्त्री जाति है, और स्त्री का स्वभाव ऐसा होता है कि, कुछ न कुछ बात में ही वह अपना अपमान मान लेती है, इसलिए माता अपने मन में स्त्री स्वभाव से किसी तरह भी अपमान न लाये, ऐसी रीति से सुपुत्र को उनकी इच्छानुसार पिता से भी अधिक चलना। अधिक कहने का कारण यह है कि, माता पिता की अपेक्षा अधिक पूज्य है। मनु ने कहा है कि-उपाध्याय से दशगुणा श्रेष्ठ आचार्य है, आचार्य से सो गुणा श्रेष्ठ पिता है और पिता से हजार गुणी श्रेष्ठ माता है। दूसरों ने भी कहा है किपशु दूधपान करना हो तब तक माता को मानते हैं, अधमपुरुष विवाह होने तक मानते हैं, मध्यमपुरुष घर का कामकाज उसके हाथ से चलता
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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