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श्राद्धविधि प्रकरणम् हो तब तक मानते हैं, और उत्तमपुरुष तो यावज्जीव तीर्थ रक्षा की तरह मानते हैं। पशुओं की माता पुत्र को केवल जीवित देखकर संतोष मानती है, मध्यमपुरुषों की माता पुत्र की कमाई से प्रसन्न होती है। उत्तमपुरुषों की माता पुत्र के वीरकृत्यों से संतुष्ट होती है और लोकोत्तर पुरुषों की
माता पुत्र के पवित्र आचरण से खुश होती है। अब बन्धु संबंधी उचित आचरण का वर्णन करते हैं।
उचिअं एअंतु सहोअरंमि जं निअइ अप्पसममेअं।
जिटुं व कणिटुंपिहु, बहु मन्नइ सव्वकज्जेसु ।।८।। अर्थः अपने सहोदर भाई के सम्बन्ध में उचित आचरण यह है कि, उसे आत्मवत्
समझना। छोटे भाई को भी बड़े भाई के समान बहुत मानना। 'बड़े भाई के समान ऐसा कहने का कारण यह है कि, "ज्येष्ठो भ्राता पितः समः" (ज्येष्ठ भाई पिता के समान है) ऐसा कहा है। इससे 'बड़े भाई के समान' ऐसा कहा। जैसे लक्ष्मण श्री राम को प्रसन्न रखता था, वैसे ही सौतेले छोटे भाई ने भी बड़े भाई की इच्छा के अनुकूल वर्ताव करना। इसी प्रकार छोटे बड़े भाईयों के स्त्रीपुत्रादिक लोगों के प्रति भी उचित आचरण करना
चाहिए। दंसइ न पुढोभावं, सब्मावं कहइ पुच्छइ अ तस्स।
ववहारंमि पयट्टइ, न निगूहई थोवमवि दविणं ॥९॥ अर्थः भाई अपने भाई को भिन्नभाव न बतावे, मन का सर्व अभिप्राय कहे,
उसका अभिप्राय पूछे, उसको व्यापार में प्रवृत्त करे, तथा द्रव्यादि भी गुप्त न रखे। 'व्यापार में प्रवृत्त करें' ऐसा कहने का यह कारण है कि, जिससे वह व्यापार में होशियार हो तथा ठग लोग उसे ठग न सके। 'द्रव्य गुप्त न रखे' ऐसा जो कहा उसका कारण यह है कि, मन में दगा रखकर द्रव्य न छुपावे, परन्तु संकट के समय निर्वाह करने के लिए तो गुप्त रखे ही। इसमें
दोष नहीं है। यदि कुसंगति से अपना भाई ढीठ हो जाये तो
अविणीअं अणुवत्तइ, मित्तेहितो रहो उवालभइ।
सयणजणाओ सिक्खं, दावइ अन्नावरसेणं ।।१०।। अर्थः विनयहीन हुए अपने भाई को उसके मित्र द्वारा समझावे, स्वयं एकान्त में
उसे उपालम्भ दे और अन्य किसी विनयसहित पुरुष के माध्यम से उसको काका, मामा, श्वसुर, साला आदि लोगों द्वारा शिक्षा दिलाये, परन्तु स्वयं उसका तिरस्कार न करे; कारण कि इससे वह कदाचित् निर्लज्ज होकर मर्यादा छोड़ दे।