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________________ 228 श्राद्धविधि प्रकरणम् अभिप्रायः पिताजी के संमुख अवश्य प्रकट कर देना चाहिए। आपुच्छिउं पयट्टइ, करणिज्जेसुं निसोहिओ ठाइ। खलिए खरंपि भणिओ, विणीअयं न हु विलंघेइ ।।५।। अर्थः पिताजी को पूछकर ही प्रत्येक कार्य में लगना, यदि पिताजी कोई कार्य करने की मनाई कर दें तो न करना, कोई अपराध होने पर पिताजी कठोर शब्द कहे, तो भी अपना विनीतपन न छोड़ना, अर्थात् मर्यादा छोड़कर चाहे जैसा प्रत्युत्तर न दें। सविसेसं परिपूरइ, धम्माणुगए मणोरहे तस्स। एमाइ उचिअकरणं, पिठणो जणणीईवि तहेव ॥६॥ अर्थः जैसे अभयकुमार ने श्रेणिक राजा तथा चिल्लणामाता के मनोरथ पूर्ण किये, वैसे ही सुपुत्र को पिताजी के साधारण लौकिक मनोरथ भी पूर्ण करना। उसमें भी देवपूजा करना, सद्गुरु की सेवा करना, धर्म सुनना, व्रत पच्चक्खाण करना, षड़ावश्यक में प्रवृत्त होना, सातक्षेत्रों में धन व्यय करना, तीर्थयात्रा करना और दीन तथा अनाथ लोगों का उद्धार करना इत्यादि जो मनोरथ हो वे धर्ममनोरथ कहलाते हैं। पिताजी के धर्म मनोरथ बड़े ही आदरपूर्वक पूर्ण करना। कारण कि, इसलोक में श्रेष्ठ ऐसे मातापिता के संबंध में सुपुत्रों का यही कर्तव्य है। जिनके उपकार से किसी भी प्रकार उऋण नहीं हो सकते ऐसे माता-पिता आदि गुरुजनों को केवलिभाषित सद्धर्म में लगाने के सिवाय उपकार का भार हलका करने का अन्य उपाय ही नहीं है। स्थानांग सूत्र में कहा है कितिण्हं दुप्पडिआरं समणाउसो! तं जहा-अम्मापिठणो १, मट्टिस्स २, धम्मायरिअस्स ३ ॥ तीन जनों के उपकार उतारे नहीं जा सकते ऐसे हैं। १ माता पिता, २ स्वामी और ३ धर्माचार्य। संपाओविअणं केइ पुरिसे अम्मापिअरं सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहि अब्भंगित्ता सुरभिणा गंधट्टएणं उव्वट्टित्ता तिहिं उदगेहिं मज्जावित्ता सव्वालंकारविभूसिकरित्ता मणुन्न थालिपागसुद्धं अट्ठारसवं जणाउलं भोअणं भोआवित्ता जावज्जीवं पिट्ठवडंसिआए परिवहिज्जा, तेणावि तस्स अम्मापिठस्स दुप्पडिआरं भवइ, अहे णं से तं अम्मापिअरं केवलिपन्नत्ते धम्मे आषवइत्ता पन्नवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवइ तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स सुपडियारं भवइ समणाउसो! १|| कोई पुरुष जीवन पर्यंत प्रातःकाल में अपने माता-पिता को शतपाक तथा सहस्रपाकतेल से अभ्यंगन करे, सुगन्धित उबटन लगावे, गंधोदक,
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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