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श्राद्धविधि प्रकरणम्
227 वयणंपि से पडिच्छइ, वयणाओ अपडिअंचेव ।।३।। अर्थः सेवक की तरह स्वयं विनयपूर्वक पिताजी की शरीर सेवा करना। यथा
उनके पैर धोना तथा दाबना, वृद्धावस्था में उनको उठाना, बैठाना, देशकाल के अनुसार उनकी प्रकृति के अनुकूल भोजन, शय्या, वस्त्र, उबटन आदि वस्तुएं देना तथा उनके अन्य कार्यों को, कभी अवज्ञा, तिरस्कार न करके स्वयं सविनय करना, नौकरों आदि से न कराना। कहा है कि-पुत्र पिताजी के संमुख बैठा हो उस समय उसकी जो शोभा दीखती है उसका शतांश भी, चाहे वह किसी ऊंचे सिंहासन पर बैठ जाय, तो भी नहीं दीख सकती। तथा मुख में से बाहर निकलते न निकलते पिताजी के वचन को स्वीकार कर लेना चाहिए। याने पिताजी का वचन सत्य करने के निमित्त राज्याभिषेक के ही अवसर पर वनवास के लिए निकले हुए रामचंद्रजी की तरह सुपुत्र पिताजी के मुख में से वचन निकलते ही आदरपूर्वक उसके अनुसार आज्ञा पालन करता है, उसे किसी प्रकार भी आनाकानी करके उनके वचनों की अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। चित्तंपि हु अणुअत्तइ, सव्वपयत्तेण सव्वकज्जेसु। उवजीवइ बुद्धिगुणे, निअसब्मावं पयासेइ ।।४।। सुपात्रपुत्र ने प्रत्येक कार्य में पूर्ण प्रयत्न से पिताजी को पसंद हो वही करना। अर्थात् अपनी बुद्धि से कोई आवश्यक कार्य सोचा हो, तो भी वह पिताजी के चित्तानुकूल हो तभी करना। शुश्रूषा (सेवा), ग्रहण आदि तथा लौकिक और अलौकिक सर्व व्यवहार में आनेवाले अन्य सम्पूर्ण बुद्धि के गुणों का अभ्यास करना। बुद्धि का प्रथम गुण माता-पिता आदि की सेवा करना है। ज्ञानी माता-पिताओं की योग्य सेवा करने से वे प्रत्येक कार्य के रहस्य (गुप्त भेद) अवश्य प्रकट करते हैं। कहा है कितत्तदुत्प्रेक्षमाणानां, पुराणैरागमैर्विना। अनुपासितवृद्धानां, प्रज्ञा नातिप्रसीदति ।।१।। यदेकः स्थविरो वेत्ति, न तत्तरुणकोटयः।
यो नृपं लत्तया हन्ति, वृद्धवाक्यात्स पूज्यते ।।२।। ज्ञानवृद्ध लोगों की सेवा न करनेवाले और पुराण तथा आगम बिना अपनी बुद्धि से पृथक्-पृथक् कल्पना करनेवाले लोगों की बुद्धि विशेष प्रसन्न नहीं होती। एक स्थविर (वृद्ध) जितना ज्ञान रखता है उतना करोड़ों तरुण लोग भी नहीं रख सकते। देखो, राजा को लात मारनेवाला पुरुष वृद्ध के वचन से पूजा जाता है। वृद्ध पुरुषों का वचन सुनना तथा समय आने पर बहुश्रुतों से पूछना। देखो, वन में हंसों का समूह बन्धन में पड़ा था वह वृद्ध वचन से ही मुक्त हुआ। इसी प्रकार अपने मन का
अर्थः सण