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________________ 226 श्राद्धविधि प्रकरणम् समारना, लीखें आदि फोड़ना, उष्णकाल में तीन बार और बाकी के काल में दो बार मजबूत, जाड़े व बड़े गलणे से संखारा आदि करने की युक्ति से पानी आदि छानने में तथा धान्य, कंडे,शाक, खाने के पान, फल आदि तपासने में सम्यग् प्रकार से उपयोग न रखना। सुपारी,खारिक, वालोल, फली इत्यादि पूर्णरूप से देखे बिना ऐसे ही मुंह में डालना, नाले अथवा धारा का जल पीना, चलते, बैठते, सोते, नहाते, कोई वस्तु डालते अथवा लेते, रांधते, कूटते, दलते, घिसते और मलमूत्र, कफ, कुल्ली, जल, तांबूल आदि डालते यथोचित यतना न रखना, धर्मकरनी में आदर न रखना, देव, गुरु तथा साधर्मियों के साथ द्वेष करना, देवद्रव्यादि का उपभोग करना, अधर्मियों की संगति करना, धार्मिकआदि श्रेष्ठ पुरुषों की हंसी करना, कषाय का उदय विशेष रखना, अतिदोष युक्त क्रय विक्रय करना, खटकर्म तथा पापमय अधिकार आदि में प्रवृत्त होना। ये सर्व धर्मविरुद्ध कहलाते हैं। उपरोक्त मिथ्यात्व आदि बहुत से पदों की व्याख्या 'अर्थदीपिका' में की गयी है। धर्मी लोग देशविरुद्ध, कालविरुद्ध, राजविरुद्ध अथवा लोकविरुद्ध आचरण करें तो उससे धर्म की निंदा होती है, इसलिए वह सब धर्मविरुद्ध समझना चाहिए। उपरोक्त पांच प्रकार का विरुद्ध कर्म श्रावक को कभी भी नहीं करना चाहिए। उचिताचरण : अब उचिताचरण (उचित कर्म) कहते हैं। उचिताचरण के पिता सम्बन्धी, माता सम्बन्धी आदि नौ प्रकार हैं। उचिताचरण से इसलोक में स्नेह की वृद्धि, यश आदि की प्राप्ति होती है। हितोपदेश माला की जिन गाथाओं में इसका वर्णन किया गया है उनको यहां उद्धृत करते हैं सामन्ने मणुअत्ते, जं केई पाठणंति इह कित्ति। तं मुणह निव्विअप्पं, उचिआचरणस्स माहप्पं ॥१॥ अर्थः ममुष्यमात्र का मनुष्यत्व समान होते हुए कुछ मनुष्य ही इस लोक में यश पाते हैं, यह उचित आचरण की महिमा है, यह निश्चय जानो। तं पुण पिइमाइसहोअरेसु पणइणिअवच्चसयणेसु। गुरुजणनायरपरतित्थिरसु पुरिसेण कायव्वं ।।२।। अर्थः उस उचित आचरण के नौ प्रकार हैं-१पिता सम्बन्धी, २ माता सम्बन्धी, ३ सहोदर भ्राता सम्बन्धी, ४ स्त्री सम्बन्धी,५ सन्तान सम्बन्धी, नातेदारों सम्बन्धी, ७ गुरुजन सम्बन्धी, ८ नगर निवासी सम्बन्धी तथा ९ अन्य दर्शनी सम्बन्धी। इस प्रकार नौ प्रकार का उचिताचरण प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए। पिता के सम्बन्ध में मन, वचन, काया से तीन प्रकार का उचित आचरण विशेष रूप से चाहिए, हितोपदेशमालाकार कहते है कि पिउणो तणुसुस्सूसं, विणएणं किंकरव्व कुणइ सयं।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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