________________
222
श्राद्धविधि प्रकरणम् ___ एक समय रंकश्रेष्ठी की पुत्री की रत्नजड़ित कंघी बहुत सुन्दर होने से राजा ने अपनी पुत्री के लिए मांगी, परन्तु उसने नहीं दी। तब राजा ने बलात्कार से ली। जिससे राजा के ऊपर रोषकर वह म्लेच्छलोगों के राज्य में गया। और वहां करोडों स्वर्णमुद्राएं खर्चकर मुगलों को वल्लभीपुर पर चढ़ाई करने ले आया, मुगलों ने वल्लभीपुर के अधीनस्थ देश को नष्ट भ्रष्ट कर दिया, तब रंक श्रेष्ठी ने सूर्यमंडल से आये हुए अश्व के रक्षक लोगों को चुपचाप द्रव्य देकर अपने पक्ष में मिलाकर कपटप्रपंच रचाया। उस समय वल्लभीपुर में ऐसा नियम था कि, संग्राम का प्रसंग आने पर राजा सूर्य के वचन से आये हुए घोड़े पर चढ़े, पश्चात् प्रथम से ही नियुक्त किये हुए लोग पंच वाजिंत्र बजाये,इतने में ही वह घोड़ा आकाश में उड़े और उस पर सवार हुआ राजा शत्रुओं को मारे और संग्राम की समाप्ति होने पर वह घोड़ा वापस सूर्यमंडल में चला जाये। इस समय रंकश्रेष्ठी ने पंच वाजिंत्र बजानेवाले लोगों को मिला रखे थे, जिससे उन्होंने राजा के घोड़े परसवार होने के पूर्व ही वाजिंत्र बजा दिये, इतने में ही घोड़ा आकाश में उड़ गया। राजा शिलादित्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। तब शत्रुओं ने उसे मार डाला और सुखपूर्वक वल्लभीपुर जीत लिया। कहते हैं कि विक्रम संवत ३७५ के अनन्तर वल्लभीपुर भेदन किया था। रंकश्रेष्ठी ने मुगलों को भी जलरहित प्रदेश में डालकर मार डाले....इत्यादि। -- अन्यायोपार्जित द्रव्य का यह परिणाम ध्यान में लेकर न्यायपूर्वक धनोपार्जन करने का प्रयत्न करना चाहिए। कहा है कि साधुओं के विहार, आहार, व्यवहार
और वचन ये चारों शुद्ध है कि नहीं? सो देखे जाते हैं। परन्तु गृहस्थ का तो केवल व्यवहार देखा जाता है। व्यवहार शुद्ध होने से ही सर्व धर्मकृत्य सफल होते हैं। दिनकृत्यकार ने कहा है कि, व्यवहार शुद्धि धर्म का मूल है, कारण कि व्यवहार शुद्ध हो तो कमाया हुआ धन भी शुद्ध होता है, धन शुद्ध होने से आहार शुद्ध होता है, आहार शुद्ध होने से देह शुद्ध होती है और देह शुद्ध होने से मनुष्य धर्मकृत्य करने को उचित होता है। तथा वह मनुष्य जो कुछ कर्म करता है वे सब सफल होते हैं। परन्तु व्यवहार शुद्ध न होने से मनुष्य जो कुछ कर्म करे वह सर्व निष्फल है। कारण कि व्यवहार शुद्ध न रखनेवाला मनुष्य धर्म की निन्दा कराता है और धर्म की निन्दा करानेवाला मनुष्य अपने आपको तथा दूसरे को अतिशय दुर्लभबोधि करता है, ऐसा सूत्र में कहा है। अतएव मनुष्य को यथाशक्ति प्रयत्न करके ऐसे कृत्य करने चाहिए, कि जिससे मूर्खलोग धर्म की निन्दा न करें, लोक में भी आहार के अनुसार शरीर प्रकृति का बंधन स्पष्ट दृष्टि आता है। जैसे अपनी बाल्यावस्था में भैंस का दूध पीनेवाले घोड़े सुख से जल में पड़े रहते हैं, और गाय का दूध पीनेवाले घोड़े जल से दूर रहते हैं, वैसे ही मनुष्य बाल्यादि अवस्था में जैसे आहार का भोग करता है, वैसी ही प्रकृति का होता है। इसलिए व्यवहार शुद्ध रखने के निमित्त अच्छी तरह प्रयत्न करना चाहिए।