SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 221 भरने से फट गयीं, तो भी क्या तुझे कोई चिन्ता नहीं?' यह सुन काकूयाक शीघ्र बिछौना त्याग, दूसरे के घर चाकरी करनेवाले अपने जीव की निन्दा करता हुआ कुदाली लेकर खेत को गया। और कुछ लोगों को फटी हुई क्यारियों को पुनः ठीक करते देखकर उसने पूछा कि, 'तुम कौन हो?' उन लोगों ने उत्तर दिया-'हम तेरे भाई के चाकर हैं' उसने पुनः पूछा कि, 'मेरे चाकर भी कहीं हैं?' उन्होंने कहा कि 'वल्लभीपुर में हैं। कुछ समय के बाद अवसर मिलते ही काकूयाक सपरिवार वल्लभीपुर में गया। वहां एक मोहल्ले में गड़रिये रहते थे। उनके पास एक घास का झोंपडा बांधकर तथा उन्हीं लोगों की सहायता से उसमें एक दुकान लगाकर रहने लगा। काकूयाक शरीर से दुबला था, इस कारण वे लोग इसे 'रंकश्रेष्ठी' कहने लगे। एक समय कोई कार्पटिक, शास्त्रोक्त कल्प के अनुसार गिरनार पर्वत के ऊपर सिद्ध किया हुआ कल्याणरस एक तुंबडी में भरकर लिये आ रहा था। इतने में वल्लभीपुर के समीप आते कल्याणसरस में से 'काकू तुंबडी' ऐसा शब्द निकला, जिससे भयातुर हो उस कार्पटिक ने वह तुंबडी काकूयाक के यहां धरोहर रख दी और आप सोमनाथ की यात्रा को चला गया। एक क्क्त किसी पर्व के अवसर पर काकूयाक ने घर में कुछ विशेष वस्तु तैयार करने के लिए चूल्हे पर कढ़ाई रखी। उस कढ़ाई पर उक्त तुंबडी के छेद में से एक बूंद गिर गयी, अग्नि का संयोग होते ही उस कढ़ाई को स्वर्णमय हुई देखकर काकूयाक को निश्चय हो गया कि, 'इस तूंबडी में कल्याणरस है।' तदनन्तर उसने घर में रही हुई सभी अच्छी-अच्छी वस्तुएं तथा वह तुंबडी बाहर निकालकर झोंपडी में आग लगा दी तथा दूसरे मोहल्ले में घर बांधकर रहने लगा। एक दिन एक स्त्री घी बेचने आयी। उसका घी तोल लेने पर काकूयाक ने देखा कि 'चाहे कितना ही घी निकाल लिया जाय परन्तु घी का पात्र खाली नहीं होता है। इस पर से उसने निश्चय किया कि, 'इस पात्र के नीचे जो कुंडलिका (चुमली) है, वह कालीचित्रकवल्ली की है।' व किसी बहाने उसने वह कुंडलिका ले ली। इसी प्रकार कपट करके उसने खोटे तराजू व बाटों से व्यापार किया। पापानुबंधिपुण्य बलवान होने से व्यापार में भी उसे बहुत द्रव्यलाभ हुआ। एक समय एक सुवर्णसिद्धि करनेवाला मनुष्य उसे मिला तो उसने युक्ति से उसे ठगकर सुवर्ण सिद्धि भी ग्रहण कर ली। इस प्रकार तीन प्रकार की सिद्धियां हाथ आने से रंकश्रेष्ठी (काकूयाक) कितने ही करोड़ धन का अधिपति हो गया। अपना धन किसी तीर्थ में, सुपात्र को तथा अनुकंपादान में यथेच्छ खर्च करना तो दूर रहा, परन्तु अन्यायोपार्जित धन के ऊपर निर्वाह करने का तथा पूर्व की दीनस्थिति और पीछे से मिली हुई धन संपदा का अपार अहंकार आदि कारणों से उसने, सब लोगों को भगा देना. नये-नये कर बढ़ाना (माल पर भाव बढ़ाना), अन्य धनिक लोगों के साथ स्पर्धा तथा मत्सर आदि करना इत्यादिक दुष्ट कृत्यकर अपनी लक्ष्मी का लोगों को प्रलयकाल की रात्रि के समान भयंकर रूप दिखाया। -
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy