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________________ 220 श्राद्धविधि प्रकरणम् गया। ___३ अन्याय से उपार्जित द्रव्य और सुपात्रदान इन दोनों के योग से तीसरा भंग होता है। उत्तम क्षेत्र में हलका बीज बोने से जैसे अंकुर मात्र ऊगता है, परन्तु धान्य नहीं उपजता, वैसे ही इससे परिणाम में सुख होता है, जिससे राजा, व्यापारी और अत्यारम्भ से धनोपार्जन करनेवाले लोगों को वह मान्य होता है। कहा है कि यह लक्ष्मी काशयष्टि के समान सार व रस रहित होते हुए भी धन्यपुरुषों ने उसे सातक्षेत्रों में बोकर सांटे के समान कर दिया। गाय को खली देने से उसका परिणाम दध के रूप में होता है, और दूध सर्पको देने से उसका परिणाम विष के रूप में आता है। सुपात्र तथा कुपात्र में वस्तु का उपयोग करने से ऐसे भिन्न-भिन्न परिणाम होते हैं, अतएव सुपात्र में ही लक्ष्मी का व्यय करना श्रेष्ठ है। स्वातिनक्षत्र का जल सर्प के मुंह में पड़े तो विष और सीप के संपुट में पड़े तो मोति होता है। देखो, वही स्वाति नक्षत्र और वही जल है किन्तु पात्र के फेरफार से परिणाम में कितनी भिन्नता हो जाती है? इस विषय में अर्बद (आबू) पर्वत के ऊपर जिनमंदिर बनानेवाले विमलमंत्री आदि के दृष्टान्त लोक प्रसिद्ध है। भारी आरंभ, समारम्भ आदि अनुचित कर्म करके एकत्रित किया हुआ द्रव्य धर्मकृत्य में न व्यय किया जाये तो उस द्रव्य से इसलोक में अपयश और परलोक में अवश्य ही नरक मिलता है। इस पर मम्मणश्रेष्ठी आदि का दृष्टान्त समझो। ४ अन्याय से उपार्जन किया हुआ द्रव्य और कुपात्रदान इन दोनों के योग से चौथा भंग होता है। इससे मनुष्य इस लोक में तिरस्कृत होता है और परलोक में नरकादिक दुर्गति में जाता है। इसलिए यह चौथा भंग अवश्य वर्जनीय है। कहा है कि-अन्याय से कमाये हुए धन का दान देने में बहुत दोष है। यह बात गाय को मारकर कौए को तृप्त करने के समान है। अन्यायोपार्जित धन से लोग जो श्राद्ध करते हैं, उससे चांडाल, भील और ऐसे ही हलकी जाति के लोग तप्त हो जाते हैं। न्याय से उपार्जन किया हुआ थोड़ासा भी द्रव्य यदि सुपात्र को दिया जाय तो उससे कल्याण होता है। परन्तु अन्याय से उपार्जन किया हुआ बहुतसा द्रव्य दिया जाय तो भी उससे कुछ भी सुफल प्राप्त नहीं हो सकता। अन्यायोपार्जित द्रव्य से जो मनुष्य अपने कल्याण की इच्छा करता है वह मानो कालकूट विष भक्षण करके जीवन की आशा रखता है। अन्याय मार्ग से एकत्रित किये धन पर निर्वाह चलानेवाला पुरुष प्रायः अन्यायी, कलह करनेवाला, अहंकारी और पापकर्मी होता है। जैसा कि रंकश्रेष्ठी था। यथारंकश्रेष्ठी : __ मारवाड देशान्तर्गत पालीग्राम में काकूयाक और पाताक नामक दो भाई थे। जिनमें छोटा भाई पाताक धनवन्त व बड़ा भाई काकूयाक महान् दरिद्री था। और इसी कारण काकूयाक पाताक के घर चाकरी करके अपना निर्वाह करता था। एक समय वर्षाकाल के दिन में बहुत परिश्रम करने से थका हुआ काकूयाक रात्रि को सो रहा। इससे पाताक ने ठपका देकर कहा कि, 'भाई! अपने खेत की क्यारिएं अधिक पानी
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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