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________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 209 पास में द्रव्य रखने में, वस्तु की परीक्षा करने में, गिनने में, गुप्त रखने में, खर्च करने में और नामा (हिसाब आदि लेख) रखने में जो मनुष्य प्रमाद करता है, वह शीघ्र ही नष्ट होता है। मनुष्य को सर्व बात ध्यान में नहीं रह सकती, बहुत सी विस्मृति हो जाती हैं, और भूल जाने से वृथा कर्मबन्ध आदि दोष सिर पर आता है। राज्याश्रय : अपने निर्वाह के लिए चन्द्रमा जैसे सूर्य को अनुसरता है, वैसे ही राजा तथा मन्त्री आदि को अनुसरना चाहिए। अन्यथा पराभव आदि होना सम्भव है। कहा है किचतुरपुरुष अपने मित्रजनों पर उपकार करने के निमित्त तथा शत्रुओं का नाश करने के निमित्त राजा के आश्रय की इच्छा करते हैं, अपना उदरपोषण करने के लिए नहीं कारण कि, राजा के आश्रय बिना अपना उदर पोषण कौन नहीं करता? बहुत से करते हैं। वस्तुपालमंत्री, पेथड़ श्रेष्ठी आदि लोगों ने भी राजा के आश्रय से जिनमंदिर आदि अनेक पुण्यकृत्य किये हैं। अस्तु, विवेकीपुरुष ने जूआ, धातुवाद (किमिया) और व्यसनों का दूर से ही त्याग करना चाहिए। कहा है कि — दैव का कोप होने पर ही द्यूत, धातुवाद, अंजनसिद्धि, रसायन और यक्षिणी की गुफा में प्रवेश करने की बुद्धि होती है। इसी प्रकार सहज कार्य में सौगन्दआदि भी न खाना चाहिए। कहा है कि जो मूर्ख मनुष्य चैत्य (देव) के सच्चे या झूठे सौगन्द खाता है वह बोधिबीज को फेंककर अनन्त संसारी होता है। चतुरमनुष्य को किसीकी जमानत देना (भलामण ) आदि संकट में न पड़ना । कार्पासिक ने कहा है कि – दरिद्री को दो स्त्रियां, मार्ग में क्षेत्र, दो तरह की खेती, जमानत और साक्षी देना ये पांच अनर्थ स्वयं मनुष्य उत्पन्न कर लेते हैं। व्यापार कहाँ करना? : वैसे ही विवेकीपुरुष को चाहिए कि जीवनभर जिस ग्राम में निवास करता हो उसीमें व्यापार आदि करना जिससे अपने कुटुम्ब के मनुष्यों का वियोग नहीं होता, घर के तथा धर्म के कार्य यथास्थित होते हैं। अपने ग्राम में निर्वाह न होता हो तो अपने देश में व्यापार आदि करना, परन्तु परदेश न जाना चाहिए। अपने देश में ही व्यापार करने से बार-बार घर जाने का अवसर आता है तथा घर के कार्यादि का निरीक्षण भी हो जाता है। ऐसा कौन दरिद्री मनुष्य है जो अपने ग्राम अथवा देश में निर्वाह होना सम्भव होने पर भी परदेश जाने का क्लेश सहता है? कहा है कि - हे अर्जुन ! दरिद्री, रोगी, मूर्ख, मुसाफिर और नित्य सेवा करनेवाला ये पांचों जीते हुए भी मृत के समान हैं, ऐसा शास्त्र में सुनते हैं। यदि परदेश गये बिना निर्वाह न चलता हो और परदेश में ही व्यापार करना पड़े, तो स्वयं न करना, तथा पुत्रादिक से भी न कराना, किन्तु विश्वासपात्र मुनीमों द्वारा व्यापार चलाना। किसी समय अपने को परदेश जाना पड़े, तो शुभशकुन आदि देख तथा गुरुवंदनादिक मांगलिककर भाग्यशाली पुरुषों के साथ जाना चाहिए। साथ में अपनी जाति के कुछ परिचित मनुष्यों को भी लेना, मार्ग में निद्रादि प्रमाद लेशमात्र भी
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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