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________________ 208 श्राद्धविधि प्रकरणम् -'परदेश में उपार्जन किया हुआ बहुतसा द्रव्य है, तथापि वह इधर-उधर फैला हुआ होने से मेरे पुत्रों से लिया नहीं जा सकेगा। किन्तु मेरे एक मित्र के पास मैंने आठ रत्न धरोहर रखे हैं, वे मेरे स्त्रीपुत्रों को दिला देना। यह कह वह मर गया। स्वजनों ने आकर उसके पुत्रादिक को यह बात कही, तब उन्होंने अपने पिता के मित्र को विनय से, प्रेम से और अत्यादर से घर बुलाया और अभयदानादि अनेक प्रकार की युक्ति से रत्नों की मांगणी की; परन्तु उस लोभी मित्र ने एक भी बात न मानी तथा रत्न भी नहीं दिये। अन्त में यह विवाद न्यायसभा में गया, किन्तु साक्षी, लेख आदि प्रमाण न होने से कुछ भी फल न हुआ। यह साक्षी रखकर द्रव्य देने के विषय में धनेश्वर श्रेष्ठी का दृष्टान्त है। इसलिए किसीको भी साक्षी रखकर द्रव्य देना चाहिए। साक्षी रखने का लाभ : साक्षी रखा हो तो चोर को दिया हुआ द्रव्य भी वापिस आता है। जैसे एक वणिक् धनवान और बहुत धूर्त था। मार्ग में जाते उसे चोर मिले, चोरों ने जुहार करके उससे द्रव्य मांगा। वणिक् ने कहा, 'साक्षी रखकर यह सर्व द्रव्य तुम ले लो और समय पाकर वापिस देना, परन्तु मुझे मारो मत। चोरों ने इसे मूर्ख समझ एक काबरचित्र जंगली बिलाड़ को साक्षी रखकर सर्व द्रव्य लेकर वणिक् को छोड़ दिया। वह वणिक उस स्थान को बराबर ध्यान में रखकर अपने ग्राम को गया। कछ दिनों के बाद एक दिन वे ही चोर उसी ग्राम के कुछ चोरों को साथ लेकर गाँव में आये। उस वणिक् ने चोरों को पहचानकर अपना द्रव्य मांगा; कलह हुआ, अन्त में यह बात राजद्वार तक पहुंची। न्यायाधीशों ने वणिक् से पूछा-'द्रव्य दिया उस समय कोई साक्षी था? उसने कहा साक्षी है। चोरों ने कहा-'बता, तेरा कौनसा साक्षी है?' वणिक ने पीजरे में रखे हए एक काले बिलाड को बताकर कहा-'यह मेरा साक्षी है' वणिक् के बताने पर चोरों ने कहा, 'वह यह नहीं है। वह तो काबरचित्र वर्ण का था, और यह तो काला है।' इस प्रकार अपने मुख से ही चोरों ने स्वीकार कर लिया। तब न्यायाधीशों ने उनके पास से वणिक् को द्रव्य दिलाया इत्यादि। इसलिए धरोहर रखना अथवा लेना हो तो गुप्त नहीं रखना, स्वजनों की साक्षी रखकर ही रखना या लेना चाहिए। मालिक की सम्मति के बिना उसे इधर-उधर भी न करना चाहिए। कदाचित् धरोहर रखनेवाला मनुष्य मर जाये तो उक्त धरोहर उसके पुत्रों को दे देना चाहिए। यदि उसके पुत्र आदि न हो तो सर्व संघ के समक्ष उसे धर्मकार्य में वापरना चाहिए। लेखा शीघ्र करना : उधार थापण आदि की नोंध उसी समय करने में लेश मात्र भी प्रमाद न रखना चाहिए। कहा है कि ग्रन्थिबन्धे परीक्षायां, गणने गोपने व्यये। लेख्यके च कृतालस्यो, नरः शीघ्रं विनश्यति ॥१।।
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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