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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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सकती हैं, अन्य वस्तु से नहीं होता । दुर्जन के साथ भी वचन की सरलता आदि दाक्षिण्यता रखना चाहिए। कहा है कि
सद्भावेन हरेन्मित्रं, सन्मानेन च बान्धवान्।
स्त्रीभृत्यान् प्रेमदानाभ्यां, दाक्षिण्येनेतरं जनम् ॥१॥
मित्र को शुद्ध मन से, बांधवों को सन्मान से, स्त्रियों को प्रेम से, सेवकों को दान से और अन्य लोगों को दाक्षिण्यता से वश में करना चाहिए।
समय पर अपनी कार्यसिद्धि के निमित्त खलपुरुषों को भी मुखिया करना चाहिए। कहा है कि किसी स्थान पर खलपुरुषों को भी मुखिया करके ज्ञानियों ने अपना कार्य साधा। रस को चखनेवाली जीभ, क्लेश करने में निपुण दांतों को मुख्य करके अपना कार्य साधन करती है। कांटों का सम्बन्ध किये बिना प्रायः निर्वाह नहीं होता। देखो, क्षेत्र, ग्राम, गृह, बगीचा आदि की रक्षा कांटों के ही स्वाधीन रहती है। द्रव्य संबंध :
जहां प्रीति हो वहां द्रव्यसम्बन्ध बिलकुल नही रखना चाहिए। कहा है कि जहां मित्रता करने की इच्छा न हो, वहां द्रव्यसम्बन्ध करना और प्रतिष्ठा भंग के भय से जहां-तहां खड़े न रहना चाहिए। सोमनीति में भी कहा है कि जहां द्रव्यसम्बन्ध और सहवास दोनों बातें होती हैं, वहां कलह हुए बिना नहीं रहता। अपने मित्र के घर भी कोई साक्षी रखे बिना धरोहर नहीं रखना, तथा अपने मित्र के हाथ द्रव्य भेजना भी नहीं। कारण कि, अविश्वास धन का और धन अनर्थ का कारण है। कहा है किविश्वासी तथा अविश्वासी दोनों मनुष्यों के ऊपर विश्वास न रखना चाहिए। कारण कि, विश्वास से उत्पन्न हुआ भय समूल नाश करता है। ऐसा कौन मित्र है कि, जो गुप्त धरोहर रखी हो तो उसका लोभ न करे? कहा है कि श्रेष्ठी अपने घर में किसी की धरोहर (अमानत) आकर पड़े, तब वह अपने देवता की स्तुति करके कहता है कि, ' 'जो इस थापण (धरोहर) का स्वामी शीघ्र मर जायें तो तुझे अमुक वस्तु चढ़ाऊंगा' वास्तव अर्थ का मूल है, परन्तु जैसे अग्नि बिना, वैसे ही धन बिना गृहस्थ का निर्वाह नहीं हो सकता । अतएव विवेकीपुरुष को धन का अग्नि की तरह रक्षण करना चाहिए। यथा-:
धनेश्वर की कथा साक्षी न करने का फल :
धनेश्वर नामक एक श्रेष्ठी था, उसने अपने घर में की सर्व सार वस्तुएं एकत्र कर उनका नकद द्रव्य करके एक - एक करोड़ स्वर्णमुद्रा के मूल्य के आठ रत्न मोल लिये और गुपचुप अपने एक मित्र के यहां धरोहर रख दिये और आप धन सम्पादन करने के लिए विदेश चला गया। बहुत समय वहां रहने के अनन्तर अकस्मात् बीमार हो जाने से उसकी मृत्यु हो गयी। कहा है कि - पुरुष मचकुन्द फूल सदृश शुद्ध मन में कुछ सोचता है, और दैवयोग से कुछ और ही होता है। धनेश्वर श्रेष्ठी का अन्तसमय समीप आया, तब स्वजन सम्बन्धियों ने उसको द्रव्यआदि के विषय में पूछा । श्रेष्ठी ने कहा
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