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________________ 202 श्राद्धविधि प्रकरणम् अतिशय उतावल से किए हुए कृत्यों के परिणाम शल्य की तरह मृत्यु समय तक हृदय में वेदना उत्पन्न करते हैं। ऐसे नीतिशास्त्र के वचन स्मरण आने से मन्त्री ने शारदानन्दन को अपने घर में छिपा रखा। एक समय राजपुत्र मृग का शिकार करते एक सूअर के पीछे बहुत दूर निकल गया। सन्ध्या हो जाने से एक सरोवर का जल पीकर व्याघ्र के भय से वह एक वृक्ष पर चढ़ा। वहां एक व्यंतराधिष्ठित वानर था, प्रथम राजपुत्र उसकी गोद में सो रहा और पश्चात् वानर राजपुत्र की गोद में सोता था कि इतने में क्षुधा पीडित व्याघ्र के वचन से राजपुत्र ने उसे नीचे डाल दिया। वह व्याघ्र के मुख में गिरा था, परन्तु ज्यों ही व्याघ्र हंसा, वह मुख में से बाहर निकला और रुदन करने लगा। व्याघ्र के रुदन करने का कारण पूछने पर बंदर ने कहा कि, 'हे व्याघ्र! अपनी जाति छोड़कर जो लोग परजाति में आसक्त होते हैं, उनको उद्देश करके मैं इसलिए रुदन करता हूं कि, उन मूों की क्या गति होगी?' तदनन्तर इन वचनों से व अपने कृत्य से लज्जित राजकुमार को उसने पागल कर दिया। तब राजपुत्र 'विसेमिरा, विसेमिरा' यह कहता हुआ जंगल में भटकने लगा। उसका घोड़ा अकेला ही नगर में जा पहुंचा। उस पर से शोध करवा के राजा अपने पुत्र को घर लाया। बहुत से उपाय किये परन्तु राजपुत्र को लेशमात्र भी गुण न हुआ। तब राजा को शारदानन्दन का स्मरण हुआ। अंत में जब राजा ने अपने पुत्र को आरोग्य करनेवाले को आधा राज्य देने का ढिंढोरा पिटवाने का निश्चय किया, तब मंत्री ने कहा कि, 'महाराज! मेरी पुत्री थोड़ा बहुत जानती है।' यह सुन राजा पुत्रसहित मंत्री के घर आया। पड़दे के अंदर बैठे हुए शारदानंदन ने कहा कि, 'विश्वास रखनेवाले को ठगना इसमें कौनसी चतुराई है? तथा गोद में सोये हुए को मारना इसमें भी क्या पराक्रम है? शारदानंदन का यह वचन सुन राजपुत्र ने 'विसेमिरा' इन चार अक्षरों में से प्रथम अक्षर 'वि' छोड़ दिया। 'सेतु (राम की बंधाई हुई समुद्र की पाल) देखने से तथा गंगा और समुद्र के संगम में स्नान करने से ब्रह्महत्या करनेवाला अपने पातक से छूटता है, परन्तु मित्र को मारने की इच्छा करनेवाला मनुष्य उस पाल को देखने से अथवा संगम स्नान से शुद्ध नहीं होता।' यह दूसरा वचन सुन राजपुत्र ने दूसरा 'से' अक्षर छोड़ दिया। मित्र को मारने की इच्छा करनेवाला, कृतघ्न, चोर और विश्वासघाती ये चारों व्यक्ति जब तक सूर्य चन्द्र हैं, तब तक नरकगति में रहते हैं। यह तीसरा वचन सुनकर राजपुत्र ने तीसरा 'मि' अक्षर छोड़ दिया। 'राजन्! तू राजपुत्र का कल्याण चाहता हो तो सुपात्र में दान दे। कारण कि, गृहस्थ मनुष्य दान देने से शुद्ध होता है। यह चौथा वचन सुनकर राजपुत्र ने चौथा 'रा' अक्षर भी छोड़ दिया। पश्चात् स्वस्थ होकर वानर व्याघ्र आदि का वृत्तान्त कहा। राजा परदे के अन्दर बैठे हुए शारदानन्दन को मंत्री की पुत्री समझता था, इससे उसने पूछा कि, 'हे बाला! तू ग्राम में रहकर भी जंगल में हुई व्याघ्र, वानर और मनुष्य की बात किस प्रकार जानती है?' तब शारदानन्दन ने कहा कि, 'हे राजन्! देवगुरु के प्रसाद से मेरी जबान में सरस्वती वास करती है, उससे जैसे
SR No.002285
Book TitleShraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherJayanandvijay
Publication Year2005
Total Pages400
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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